________________
३९२
धर्मशास्त्र का इतिहास
मूर्ति-पूजा-सम्बन्धी विषय मूर्ति-पूजा सम्बन्धी साहित्य बहुत लम्बा-चौड़ा है। मूर्ति-पूजा से सम्बन्ध रखनेवाले विषय ये हैं-वे पदार्थ जिनसे मूर्तियाँ बनती है, वे प्रमुख देवता जिनकी मूर्तियों की पूजा होती थी या होती है, मूर्ति-निर्माण में शरीरावयवों के आनुपातिक क्रम, मूर्तियों एवं देवालयों की स्थापना एवं मूर्ति-विषयक कृत्य।
___ वराहमिहिर की बृहत्संहिता (अध्याय ५८, जहाँ ८ या ४ या २ बाहुओं वाली राम एवं विष्णु की मूर्तियों के विषय में तथा बलदेव, एकानंशा, ब्रह्मा, स्कन्द, शिव, गिरिजा-शिव की अर्धागिनी के रूप में, बुद्ध, जिन, सूर्य, मातृका, यम, वरुण एवं कुबेर की मूर्तियों के विषय में उल्लेख है) में, मत्स्यपुराण (अध्याय २५८-२६४) में, अग्निपुराण (अध्याय ४४।५३) में, विष्णुधर्मोत्तर (३।४४) तथा अन्य पुराणों में, मानसार, हेमाद्रि की चतुर्वर्गचिन्तामणि (व्रतखण्ड, जिल्द २, १, पृ० ७६-२२२) एवं कतिपय आगम ग्रन्थों में, १५वीं शताब्दी के सूत्रधार मण्डन कृत देवतामूर्तिप्रकरण में तथा अन्य पुस्तकों में प्रतिमालक्षण के विषय में विस्तृत नियम दिये गये हैं। स्थानाभाव के कारण हम विस्तार में नहीं जायँगे। आधुनिक काल में बहुत-सी अध्ययन-सामग्री, ग्रन्थ एवं लेख प्रकाशित हुए हैं।
___ मध्यकाल के निबन्धों में स्मृतिचन्द्रिका, स्मृतिमुक्ताफल, पूजाप्रकाश आदि ग्रन्थ देवपूजा तथा उसके विभिन्न स्वरूपों पर विस्तार के साथ प्रकाश डालते हैं। पूजाप्रकाश ३८२ पृष्ठों में मुद्रित हुआ है। हम नीचे कुछ विषयों पर संक्षिप्त प्रकाश डालेंगे।
मूर्तिपूजा का अधिकारी, स्थल आदि
पाणिनि के वार्तिक ('उपाद् देवपूजा०', ११३।२५ पर) में 'देवपूजा' शब्द आया है। निबन्धों ने यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि याग (यज्ञ) एवं पूजा समानार्थक हैं, क्योंकि दोनों में देवता के लिए द्रव्य-समर्पण की बात पायी जाती है।
अब प्रश्न उठता है; देवपूजा करने का अधिकारी कौन है ? नृसिंहपुराण एवं वृद्ध हारीत (६।६ एवं २५६) के मत से नृसिंह के रूप में विष्णु की पूजा सभी वर्गों के स्त्री-पुरुष, यहाँ तक कि अछूत लोग भी कर सकते हैं। व्यवहारमयूख (पृ० १३३) में उद्धृत शाकल के मत से संयुक्त परिवार के सभी सदस्य अलग अलग रूप से सन्ध्या, ब्रह्मयज्ञ एवं अग्निहोत्र (यदि उन्होंने श्रौत एवं गृह्य अग्नियाँ प्रज्वलित की हों) कर सकते हैं, किन्तु देवपूजा एवं वैश्वदेव पूरे परिवार के इकट्ठे होंगे। देवपूजा का समय मध्याह्न के तर्पण के उपरान्त एवं वैश्वदेव के पूर्व है; किन्तु कुछ लोग इसे वैश्वदेव के उपरान्त भी करते हैं। दक्ष (२।३०-३१) के अनुसार सभी देवकार्य दिन के पूर्वार्ध भाग के भीतर ही हो जाने चाहिए।
हिन्दू धर्म में एक विचित्र बात है अधिकार-भेद (बुद्धि, संवेग एवं आध्यात्मिक बल के आधार पर अधिकारों, कतव्यों, उत्सवों एवं पूजा में अन्तर)। सभी व्यक्ति एक ही प्रकार के अनुशासन एवं अन्नपान-विधि या पथ्यापथ्य नियम के योग्य नहीं माने जा सकते। मूर्ति-पूजा भी सभी व्यक्तियों के लिए अत्यावश्यक नहीं थी। प्राचीन ग्रन्थकारों ने यह कभी नहीं सोचा कि वे मूर्ति की पूजा भौतिक वस्तु की पूजा के रूप में करते हैं। उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि मूर्ति के रूप में वे परमात्मा का ध्यान करते हैं।
नारद, भागवतपुराण (११।२७१९) एवं वृद्ध हारीत (६।१२८-१२९) के मत से हरि की पूजा जल, अग्नि, हृदय, सूर्य, वेदी, ब्राह्मणों एवं मूर्तियों में होती है। शात प का कहना है-“साधारण लोगों के देव जल में हैं, ज्ञानियों के स्वर्ग में, अज्ञानियों एवं अल्प बुद्धि वालों के काठ एवं मिट्टी (अर्थात् मूर्ति) में तथा योगियों के देव उनके सत्त्व (या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org