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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास मोहेंजोदड़ो (देखिए सर जॉन मार्शल, जिल्द १, पृ० ५८-६३ ) में लिंग-पूजा के चिह्न मिले हैं। इनके अतिरिक्त लिंग-मूर्तियाँ ईसापूर्व पहली शताब्दी के आगे की नहीं प्राप्त हो सकी हैं। किन्तु ईसा से कई शताब्दियों पूर्व भारत में मूर्ति पूजा का विस्तार हो चुका था । आपस्तम्बगृह्यसूत्र (२०।१।३) की टीका में लिखित हरदत्त के मत से ईशान, उनकी पत्नी एवं पुत्र जयन्त ( विजेता स्कन्द ) की मूर्तियों की पूजा होती थी। मानवगृह्य ( २।१५।६ ) ने लिखा है कि यदि (काष्ठ, प्रस्तर या धातु की ) मूर्ति जल जाय, उसका अंग भंग हो जाय, या वह गिर जाती है और उसके कई टुकड़े हो जाते हैं, वह हँसती है या स्थानान्तरित हो जाती है, तो मूर्ति वाले गृहस्थ को वैदिक मन्त्रों के साथ अग्नि में दस आहुतियाँ देनी चाहिए ।" बौधायनगृह्यसूत्र ( २।२।१३) ने उपनिष्क्रमण ( प्रथम बार बच्चे को घर से बाहर ले जाने) के समय पिता द्वारा मूर्ति-पूजा की बात कही है। लौगाक्षिगृह्य (१८१३) ने देवतायतन ( देवालय या मन्दिर) की बात कही है। इसी प्रकार गौतम ( ९११३-१४ एवं ९।६६ ), शांखायनगृह्यसूत्र (४/१२/१५ ), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।११।३०/२८) में देवतायतन की चर्चा हुई है । मनु (२।१७६) ने लिखा है कि ब्रह्मचारी को मूर्ति पूजा करनी चाहिए, लोगों को यात्रा में जब मूर्तियाँ मिलें, तो प्रदक्षिणा करनी चाहिए ( ४१३९), मूर्ति की छाया को लाँघना नहीं चाहिए ( ४ | १३० ) । मनु ने यह भी लिखा है कि साक्षियों को देवमूर्तियों एवं ब्राह्मणों के समक्ष शपथ लेनी चाहिए ( ८1८७) । और देखिए मनु ( ३ | ११७ एवं ९।२८५) । विष्णुधर्मसूत्र ( २३।३४, ६३।२७) ने देवतार्चाओं ( देवमूर्तियों) की तथा भगवान् वासुदेव की मूर्ति का उल्लेख किया है । वसिष्ठ (११।३१ ) एवं विष्णुधर्मसूत्र ( ६९।७, ३०।१५, ७०/१३, ९१।१० ) में 'देवतायतन' एवं 'देवायतन' शब्द आये हैं । किन्तु इन ग्रन्थों की तिथियाँ अभी निश्चित नहीं की जा सकी हैं। किन्तु इतना तो ठीक ही है कि मानव, बौधायन एवं शांखायन नामक गृह्यसूत्र तथा गौतम एवं आप स्तम्ब के धर्मसूत्र ईसा पूर्व ५वीं या ४थी शताब्दियों के बाद के नहीं हो सकते। पाणिनि ने भी देवमूर्ति की चर्चा की है। (५/३/९९ ) और उनकी तिथि ई० पू० ३०० के उपरान्त नहीं रखी जा सकती।' पतञ्जलि ( महाभाष्य, जिल्द २, पृ० २२२, ३१४, ४२९) ने भी मूर्तियों का उल्लेख किया है। महाभारत (आदिपर्व ७०।४९, अनुशासनपर्व १०।२०- २१, आश्वमेधिक ७० । १६, मीष्म० ११२।११ आदि में देवायतनों का उल्लेख हुआ है। कलिंग के राजा खारवेल (ई० पू० दूसरी शताब्दी का उत्तरार्ध) ने नन्दराज द्वारा ले जायी गयी जिन-मूर्ति की स्थापना की थी, और उसे 'सर्वदेवायतनसंखार-कारक' (सभी मंदिरों की सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार करनेवाले) की उपाधि मिली थी । कौटिल्य के अर्थशास्त्र ( २/४ ) में (जिसकी तिथि ई० पू० ३०० से ईसा बाद २५० तक विभिन्न विद्वानों द्वारा रखी गयी है) आया है कि राजधानियों के मध्य में अपराजित, अप्रतिहत, जयन्त, वैजयन्त की तथा शिव, वैश्रवणं, लक्ष्मी एवं मदिरा के मन्दिरों की स्थापना होनी चाहिए। उपर्युक्त विवेचनों से प्रकट होता है कि पाणिनि के बहुत पहले से ही मूर्ति - ३९० ५. यद्यच दोहा नश्येद्वा प्रपतेद्वा प्रभजेद्वा प्रचलेद्वा एताभिर्जुहुयात् इति वशाहुतयः । मानवगृह्य (२/१५६) । ६. जीविका चापष्ये । पाणिनि ५ । ३ । १९; 'अपण्य इत्युच्यते । तत्रैवं न सिध्यति शिवः स्कन्दः विशाख इति । किं कारणम् । मौहरण्यार्थिभिरर्चाः प्रकल्पिताः । भवेतासु न स्यात् । यास्स्वेताः संप्रति पूजार्यास्तासु भविष्यति । महाभाष्य, जिल्ब २, पृ० ४२९; दीर्घ नासिक्य च तुंगनासिक्यच । महाभाष्य, जिल्द २, पृ० २२२ ( पाणिनि ४।१।५४ पर); 'वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् । पाणिनि ४।३।९८; 'अथवा नैवा क्षत्रियास्या । संज्ञेषा तत्रभवतः ।' महाभाष्य, जिल्व २, पृ० ३१४; देखिए एपिफिया इण्डिका, जिल्व २०, पृ० ८० एवं डा० आर० जी० भण्डारकर कृत "वैष्णविज्म एण्ड शैविज्म" (१९१३), पू० ३।४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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