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देवयज्ञ
३८९ वाला (ऋ० १०।९७।८), हरे रंग की ठुड्डी वाला ( ऋ० १० १०५/७ ) कहा गया है। रुद्र को 'ऋदूर' (जिसका पेट कोमल हो), बभ्रु (भूरे रंग का) एवं 'सुशिप्र ' ( सुन्दर ठुड्डी या नाक वाला) कहा गया है (ऋ० २।२३।५ ) । वाजसनेयी संहिता में रुद्र को गहरे आसमानी (नील) रंग वाले गले का एवं लाल रंग का ( १६।७ ) तथा चर्म (कृत्ति ) पहनने वाला कहा गया है ( १६।५१) । ऋग्वेद (१११५५/६ ) ने विष्णु को बृहत् शरीर एवं युवा रूप में युद्ध में जाते देखा है। ऋग्वेद ( ३।५३।६ ) में इन्द्र को सोमरस पीकर घर जाने को कहा गया है, क्योंकि उसकी स्त्री सुन्दर एवं आकर्षक है और उसका घर रमणीक है। ऋग्वेद (१०।२६१७ ) में पूषा को दाढ़ी हिलाते हुए कहा गया है। ऋग्वेद ( ४/५ ३०२ ) में सविता को द्रापि (कवच ) पहनने वाला कहा गया है; और इसी प्रकार ऋग्वेद (१।२५।१३ ) ने वरुण को सोने की द्वापि वाला कहा है। इसी प्रकार अनेक उदाहरण उपस्थित किये जा सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि यह सब वर्णन कवित्वमय एवं आलंकारिक मात्र है। किन्तु ऋग्वेद के दो उदाहरण कठिनाई उपस्थित कर देते हैं। ऋग्वेद (४।२४।१०) में आया है - "मेरे इस इन्द्र को दस गायों के बदले कौन ख़रीदेगा और जब यह (इन्द्र) शत्रुओं को मार डालेगा तब इसे लौटा देगा ?" ऋग्वेद ( ८1१/५) में पुनः आया है -- "हे इन्द्र, मैं तुम्हें बड़े दामों पर भी नहीं दूंगा, चाहे एक सौ, एक सहस्र, या एक अयुत ( १० सहस्र ) क्यों न मिले। इन दोनों उदाहरणों से अर्थ निकाला जा सकता है कि इनमें इन्द्र की प्रतिमा की ओर संकेत है। किन्तु यह जँचनेवाली बात नहीं है। यह भी कहा जा सकता है। कि इन उदाहरणों में इन्द्र के प्रति उसके भक्तों की अटूट श्रद्धा का संकेत प्राप्त होता है। यदि हम ब्राह्मण-ग्रन्थों में वणित यज्ञों एवं यज्ञ की सामग्रियों का अवलोकन करें तो यही स्पष्ट होता है कि प्राचीन ऋषियों ने देवताओं को परोक्ष रूप में ही पूजा है, हाँ, कवित्वमय ढंग से उन्हें हाथों, पैरों एवं अन्य अंगों से रूपायित माना है । यत्र-तत्र कुछ ऐसे वर्णन अवश्य मिलते हैं जिनसे मूर्ति-पूजा का निर्देश मिल जाता है, यथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ( २।६।१७ ) में आया है -- " होता याजक उन तीन देवियों की पूजा करे जो सुवर्णमयी हैं, सुन्दर हैं और बृहत् हैं।" लगता है, तीनों देवियों की सोने की मूर्तियाँ थीं। इतना कहा जा सकता है कि उच्चस्तरीय आर्यों के धार्मिक कृत्यों में घर या मन्दिर में मूर्तिपूजा का कोई स्थान नहीं था । किन्तु वैदिक भारत के निम्नस्तरीय लोगों के धार्मिक आचार-व्यवहारों के विषय में हमें कोई साहित्यिक निर्देश नहीं प्राप्त होता । ऋग्वेद ( ७।२१।५ ) में वसिष्ठ इन्द्र से प्रार्थना करते हैं- "हमारे धार्मिक आचार-व्यवहार (ऋत) पर शिश्नदेवों का प्रभाव न पड़े।" इसी प्रकार ऋग्वेद (१०/९९/३ ) की प्रार्थना है - "इन्द्र शिश्नदेवों को मार-पीटकर अपने स्वरूप एवं शक्ति से जीत ले।" "शिश्नदेव' शब्द के अर्थ के विषय में मतैक्य नहीं है। कुछ लोग शिश्नदेवों को लिंग पूजा करनेवाले मानते हैं (देखिए वेदिक इण्डेक्स, जिल्द २, पृ० ३८२ ) । कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि यह शब्द गौण एवं रूपक की भाँति प्रयुक्त हुआ है, जिसका तात्पर्य है " वे लोग, जो मैथुन-तृप्ति में संलग्न रहते हैं और किसी अन्य कार्य को महत्ता नहीं देते।" यास्क ने ऋग्वेद ( ७।२१।५ ) को उद्धृत कर समझाया है कि शिश्नदेव लोग वे हैं जो ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन नहीं करते । अधिकांश विद्वान् लोग इसी दूसरे मत को स्वीकार करते हैं ।
२. क इमं दशभिर्ममेन्द्र क्रीणाति धेनुभिः । यदा वृत्राणि जंघनवर्धनं मे पुनर्ववत् ॥ ऋग्वेद ( ४१२४|१०); महे चन त्वामद्रिवः परा शुल्काय वेयाम्। न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥ ऋग्वेद ( ८1११५) । ३. होता यक्षत्वेशस्वतीः । तिस्रो देवीर्हिरण्ययीः । भारती हंतीमंडीः । तं० ब्रा० (२/६/१७ ) | ये तीनों देवियाँ हैं भारती, इडा एवं सरस्वती ।
४. मा शिश्नदेवा अपि तं नः ॥ ऋ० ७/२/५ ' मा शिश्नदेवाः जः संयतेनिः
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देवां अभि वर्ष सा भूत् ॥ ऋ० १०/९९/३६ वायवा ।' निरुक्त (४|१९) ।
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