SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १९ देवयज्ञ देवयज्ञ का सम्पादन अग्नि में समिधा डालने से होता है (तैत्तिरीयारण्यक २।१०)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१ ४।१३।१), बौधायनधर्मसूत्र' (२।६।४) एवं गौतम (५।८-९) के अनुसार देवता का नाम लेकर 'स्वाहा' शब्द के उच्चारण के साथ अग्नि में हवि या कम-से-कम एक समिधा डालना देवयज्ञ है। मनु (३७०) ने होम को देवयज्ञ कहा है। विभिन्न गृह्य एवं धर्मसूत्रों के अनुसार विभिन्न देवताओं के लिए होम या देवयज्ञ किया जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२।२) के मत से देवयज्ञ के देवता के हैं-"अग्निहोत्र के देव (सूर्य या अग्नि एवं प्रजापति), सोम वनस्पति, अग्नि एवं सोम, इन्द्र एवं अग्नि, द्यौ एवं पृथिवी, धन्वन्तरि, इन्द्र, विश्वे देव, ब्रह्मा।" गौतम के अनुसार देवता हैं "अग्नि, धवन्तरि, विश्वे देव, प्रजापति एवं अग्नि स्विष्टकृत् ।” मानवगृह्यसूत्र (२।१२।२) में विभिन्न नाम मिलते हैं। पश्चात्कालीन स्मृतियों ने होम (या देवयज्ञ) एवं देवपूजा में अन्तर बताया है। याज्ञवल्क्य (१।१००) तर्पण तथा देव-पूजा की चर्चा करने के उपरान्त पञ्चयज्ञों में होम को सम्मिलित करते देखे जाते हैं। मनु (२।१७६) ने भी यही अन्तर दर्शाया है। मध्य काल के ग्रन्थकारों ने वैश्वदेव को ही देवयज्ञ माना है, किन्तु अन्य लोगों ने देवों के होम को वैश्वदेव से भिन्न माना है (देखिए आपस्तम्बधर्मसत्र १४।१३।१ पर हरदत्त)। स्मतिमक्ताफल (आह्निक, पृ० ३८३) में उद्धृत मरीचि एवं हारीत के अनुसार प्रातः-होम के उपरान्त या मध्याह्न में ब्रह्मयज्ञ एवं तर्पण के उपरान्त देवपूजा की जाती है। मध्य एवं आधुनिक काल में होम-सम्बन्धी प्राचीन विचार निम्न मूमि में चला गया और उसका स्थान देवपूजा (घर में ही रखी मूर्तियों के पूजन) की विस्तृत विधि ने ले लिया है। यहाँ पर मूर्ति-पूजा के विषय में थोड़ा सा लिखा जा रहा है। मूर्ति-पूजा का उद्गम प्राचीन वैदिक काल में मूर्ति-पूजा होती थी कि नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद एवं अन्य वेदों के लेखानुसार अग्नि, सूर्य, वरुण एवं अन्य देवताओं का पूजन होता था, किन्तु वह परोक्ष रूप में होता था और ये देव या तो एक ही दैवी या दिव्य व्यक्ति की शक्तियाँ या अभिव्यक्तियाँ थे, या प्राकृतिक दृश्य या आकस्मिक वस्तु थे, या सम्पूर्ण विश्व की विभिन्न गतियाँ थे। ऋग्वेद में कई स्थानों पर देव लोग भौतिक (शारीरिक) उपाधियों से युक्त भी माने गये हैं। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद (८।१७।३) में इन्द्र को 'तुविग्रीव' (शक्तिशाली या मोटी गरदन वाला), 'वपोदर' (बड़े उदर वाला) एवं 'सुबाहु' (सुन्दर बाहुओं वाला) कहा गया है। ऋग्वेद (८३१७१५) में इन्द्र के अंगों एवं पाश्वों का वर्णन है और उसे अपनी जिह्वा से मधु पीने को कहा गया है। इसी प्रकार इन्द्र को रंगीन बालों एवं दाढ़ी १. अहरहः स्वाहा कुर्यादाकाष्ठातर्थतं देवयज्ञं समाप्नोति । बौ०५० २६।४; देवपितृमनुष्ययनाः स्वाध्यायश्च बलिकर्म। अग्नावग्निधन्वन्तरि विश्वेदेवाः प्रजापतिः स्विष्टकृदिति होमः । गौतम (५।८-९)। मन्त्र होते हैं-'सोमाय वनस्पतये स्वाहा, अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा...आदि'; जब स्वाहा कहा जाता है तो आहुति अग्नि में डाली जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy