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________________ ३८७ वेद, ब्राह्मण, कल्प, गाथा, नाराशंसी, इतिहास एवं पुराण। किन्तु मनोयोगपूर्वक जितना स्वाध्याय किगा जा सके उतना ही करना चाहिए। शांखायनगृह्यसूत्र (१।४) ने ब्रह्मयज्ञ के लिए ऋग्वेद के बहुत-से सूक्तों एवं मन्त्रों के पाठ की बात कही है। अन्य गृह्यसूत्रों में अपने वेद एवं शाखा के अनुसार ब्रह्मयज्ञ के लिए विभिन्न मन्त्रों के पाठ या स्वाध्याय की बात कही गयी है। याज्ञवल्क्यस्मृति (१११०१) में लिखा है कि समय एवं योग्यता के अनुसार ब्रह्मयज्ञ में अथर्ववेद सहित अन्य वेदों के साथ इतिहास एवं दार्शनिक ग्रन्थ भी पढ़े जा सकते हैं। _आधुनिक काल में अत्यन्त कट्टर वैदिकों एवं शास्त्रियों को छोड़कर ब्रह्मयज्ञ प्रति दिन कोई नहीं करता। आजकल वर्ष में केवल एक बार श्रावण मास में निर्धारित एक सूत्र के अनुसार ब्रह्मयज्ञ किया जाता है। ऋग्वेद के छात्र के लिए वह सूत्र यों है-“ओं भूर्भुवः स्वः एवं गायत्री के पाठ के उपरान्त वह ऋग्वेद के १२१।१-९ मन्त्रों का पाठ करता है, तब ऐतरेय ब्राह्मण का प्रथम वाक्य, ऐतरेय ब्राह्मण के पांचों विभागों के प्रथम वाक्यों, कृष्ण एवं शुक्ल यजुर्वेद के प्रथम वाक्यों, सामवेद, अथर्ववेद के प्रथम वाक्यों, एवं छ. वेदांगों (आश्वलायनश्रौतसूत्र, निरुक्त, छन्द, निघण्टु, ज्योतिष, शिक्षा) के प्रथम वाक्यों, पाणिनि व्याकरण के प्रथम सूत्र, याज्ञवल्क्यस्मृति (१११) के प्रथम श्लोकार्ष, महाभारत (१११११) के प्रथम श्लोकार्घ, न्याय, पूर्व मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा के प्रथम सूत्र, तब कल्याणप्रद सूत्र, यथा 'तच्छंयोरावृणीमहे...चतुष्पदे', और अन्त में 'नमो ब्रह्मणे...' नामक मन्त्र का पाठ करता है।" इस ब्रह्मयज्ञ के उपरान्त देवों, ऋषियों एवं पितरों का तर्पण आरम्भ होता है। धर्मसिन्धु (३, पूर्वार्ध, पृ० २९९) के मत से ब्रह्मयज्ञ एक बार प्रातःहोम या. मध्याह्न-सन्ध्या या वैश्वदेव के उपरान्त करना चाहिए, किन्तु आश्वलायनसूत्रपाठी को मध्याह्न-सन्ध्या के उपरान्त ही करना चाहिए। आचमन एवं प्राणायाम के उपरान्त यह संकल्प करना चाहिए-"श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ ब्रह्मयज्ञं करिष्ये तदंगतया देवाचार्यतर्पणं करिष्ये।' यदि पिता न हो तो संकल्प में इतना जोड़ देना चाहिए-"पितृतर्पणं च करिष्ये।" इसके उपरान्त धर्मसिन्धु उन लोगों के लिए ब्रह्मयज्ञ की व्यवस्था करता है जो सभी वेद जानते हैं या एक ही वेद जानते हैं या केवल एक अंश जानते हैं या उनके पास समय नहीं है। धर्मसिन्धु का कहना है कि तैत्तिरीय शाखा के अनुयायी 'विद्युदसि विद्या में पाप्मानमृतात् सत्ययुपैमि' आरम्भ में तथा 'वृष्टिरसि वृश्च मे पाप्मानमृतात् सत्यमुपागाम्' अन्त में कहते हैं। यदि कोई व्यक्ति बैठकर ब्रह्मयज्ञ न करे सके तो वह लेटे हुए भी इसे सम्पादित कर सकता है। धर्मसिन्धु का कहना है कि तैत्तिरीय शाखा के अनुयायियों एवं वाजसनेयी संहिता के अनुसार तर्पण ब्रह्मयज्ञ का कोई अंग नहीं है, अतः तर्पण का सम्पादन ब्रह्मयज्ञ के पूर्व या इसके कुछ समय उपरान्त हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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