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धर्मशास्त्र का इतिहास धार्मिक वाद-विवाद-वाजसनेयी संहिता २३।९-१२ एवं ४५-६२), इतिहास-पुराण, गाथाएँ, नाराशंसा (नायकों की प्रशंसा में कही गयी कविताएँ)। इनके पढ़ने से भी देव लोग प्रसन्न होकर उपर्युक्त वरदान देते हैं। तैत्तिरीयारण्यक (२०१०-१३) में ब्रह्मयज्ञ के विषय का बड़ा विस्तार है। इसमें आया है कि अथवागिरस का पाठ मधु की आहुतियाँ है, तथा ब्राह्मण ग्रन्थों, इतिहासों, पुराणों, कल्पों (श्रौत कृत्य-सम्बन्धी ग्रन्थों), गाथाओं एवं नाराशंसियों का पाठ मांस की आहुतियों के बराबर है। ब्रह्मयज्ञ से प्रसन्न होकर देव लोग जो पुरस्कार देते हैं वे हैं दीर्घ आयु, दीप्ति, चमक (तेज), सम्पत्ति, यश, आध्यात्मिक उच्चता एवं भोजन। तैत्तिरीयारण्यक (२०११) ने ब्रह्मयज्ञ करने के स्थल के विषय में यों लिखा है--"ब्रह्मयज्ञ करने वाले को इतनी दूर पूर्व, उत्तर या उत्तर-पूर्व में चला जाना चाहिए कि गाँव के घरों के छाजन न दिखाई पड़ें; जब सूर्योदय होने लगे तो उसे यज्ञोपवीत (उपवीत ढंग से) अपने दाहिने हाथ के नीचे डाल लेना चाहिए; एक पूत स्थल पर बैठ जाना चाहिए, अपने दोनों हाथों को स्वच्छ करना चाहिए, तीन बार आचमन,करना चाहिए, हाथ को जल से दो बार धो लेना चाहिए, अपने अघरों पर जल छिड़कना चाहिए; सिर, आँखों को, नाक-छिद्रों को, कानों को, हृदय को छूना चाहिए; दर्म की एक बड़ी चटाई बिछाकर उस पर पूर्वाभिमुख हो पद्मासन (बायाँ पैर नीचे तथा दाहिना पैर बायीं जाँघ पर) से बैठ जाना चाहिए और तब वेद का पाठ करना चाहिए; (ऐसा कहा गया है कि) दर्भ भांति-भांति के जलों एवं जड़ी-बूटियों की मधुरता अपने में समेटे रहता है, अतः वह (दों पर आसन ग्रहण करने के कारण) वेद को माधुर्य से भर देता है। अपने बायें हाथ को दाहिने पैर पर रखकर, करतल को दाहिने करतल से ढककर और दो हाथों के बीच में दर्भ (पवित्र) को रखकर 'ओम्' कहना चाहिए जो यजु' है, और है तीनों वेदों का प्रतिनिधि, जो वाणी है, और है सर्वोत्तम शब्द; यह बात ऋग्वेद में (१११६४।३९ को उद्धृत करके) कही गयी है। तब वह भूः, भुवः, स्वः का उच्चारण करता है और इस प्रकार (व्याहृतियों का पाठ करके) वह तीनों वेदों का प्रयोग करता है। यह वाणी का सत्य (सत्त या सार) है; वह इसके द्वारा वाणी का सत्य अपनाता है। तब वह तीन बार गायत्री पढ़ता है, जो सविता को सम्बोधित, है; पृथक्-पृथक् पादों के साथ, इसके उपरान्त इसका आधा और पुनः पूरा बिना रुके कहता जाता है। सूर्य यश का स्रष्टा है, वह स्वयं यश को प्राप्त करता है; तब वह (दूसरे दिन) आगे का वेद-पाठ करता है।" तैत्तिरीयारण्यक (२०१२) का कहना है कि यदि व्यक्ति बाहर न जा सके तो उसे गाँव में ही दिन या रात्रि में ब्रह्मयज्ञ करना चाहिए; यदि वह बैठ न सके तो खड़े होकर या लेटकर ब्रह्मयज्ञ कर सकता है, क्योंकि मुख्य विषय है वेद-पाठ (काल एवं स्थान गौण है)। तैत्तिरीयारण्यक (२०१३) कहता है कि उसे ब्रह्मयज्ञ का अन्त “नमो ब्रह्मणे नमो स्वग्नये नमः पृथिव्यै नम ओषधीम्यः। नमो वाचे नमो वाचस्पतये नमो विष्णवे बृहते करोमि।" नामक मन्त्र को तीन बार कहकर करना चाहिए। इसके उपरान्त आचमन करके घर आ जाना चाहिए; और तब वह जो कुछ देता है वह ब्रह्मयज्ञ का शुल्क हो जाता है।"
__ उपर्युक्त ब्रह्मयज्ञ-विधि आश्वलायनगृह्यसूत्र (३।२।२, ३।३।४) में ज्यों-की-त्यों पायी जाती है। लगता है, अन्य ग्रन्थों ने तैत्तिरीयारण्यक को ही इस विषय में आदर्श माना है। दो-एक स्थानों पर कुछ विभेद दिखाई पड़ते हैं। आश्वलायनगृह्यसूत्र (३।३।४) ने ध्यानमग्नता के लिए क्षितिज की ओर देखते रहने, या आंखें बन्द कर रखने आदि की व्यवस्था दी है। इस सूत्र ने ब्रह्मयज्ञ का सूक्ष्म रूप यों बताया है-“ओं भूर्भुवः स्वः, तीन बार गायत्री मन्त्र, कम-से-कम एक ऋग्वेद मन्त्र और 'नमो ब्रह्मणे...' वाला मन्त्र तीन बार कहना चाहिए।" आह्निकप्रकाश (पृ० ३२९) का कहना है कि जो वेद का केवल एक अंश जानता है, उसे पुरुषसूक्त (ऋग्वेद १०।९०) एवं अन्य ऋचाओं का पाठ ब्रह्मयज्ञ में करना चाहिए, और जो केवल गायत्री जानता है, उसे 'ओम्' का जप ब्रह्मयज्ञ के रूप में प्रति दिन करना चाहिए। आश्वलायनगृह्यसूत्र (३।३।१) ने स्वाध्याय के लिए निम्न ग्रन्थों के नाम लिये हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्व
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