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पञ्च महायज्ञ
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छोड़कर चलने, शीघ्रता से हिल जाने या कीड़े-मकोड़ों पर चढ़ जाने आदि से उत्पन्न होती है। तीसरी वह है जो पीटने या काटने (कुल्हाड़ी से वृक्ष काटने आदि), चूर्ण करने, चीरने (लकड़ी आदि) आदि से उत्पन्न होती है; चौथी वह है जो अनाज कूटने, रगड़ने या पीसने से उत्पन्न होती है; और पांचवीं वह है जो घर्षण (लकड़ी से) करने, गर्म करने (जल आदि), भूनने, छीलने या पकाने से उत्पन्न होती है। ये पाँचों सूना, जो हमें नरक में ले जाती हैं, लोगों द्वारा प्रतिदिन सम्पादित होती हैं। ब्रह्मचारी प्रथम तीन सूनाओं से छुटकारा पाते हैं अग्नि-होम, गुरु-सेवा एवं वेदाध्ययन से; गृहस्थ लोग एवं वानप्रस्थ लोग इन पांचों सूनाओं से छुटकारा पांच यज्ञ करके पाते हैं; यति लोग प्रथम दो सूनाओं से छुटकारा पवित्र ज्ञान एवं मनोयोग से प्राप्त करते हैं. किन्तु बिना पकाये गये बीजों को दांतों तले दबाने से जो सूना होती है वह उपर्युक्त किसी भी साधन से दूर नहीं होती।"
यद्यपि आपस्तम्बधर्मसूत्र एवं अन्य ग्रन्थों में पांचों यज्ञों का क्रम है --भूतयज्ञ, मनुष्ययश, देवयज्ञ, पितृयश एवं स्वाध्याय, किन्तु उनके सम्पादन के कालों के अनुसार उनका क्रम होना चाहिए ब्रह्मयज्ञ (जप आदि), देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ। हम इसी क्रम से पांचों का विवेचन करेंगे। ब्रह्मयज्ञ एवं पितृयज्ञ के काल एवं स्वरूप के विषय में कई मत हैं। हम उन मतों का विवेचन यहीं उपस्थित कर दे रहे हैं। गोभिलस्मृति (२।२८-२९) के अनुसार सन्ध्यापूजा के समय के जप को ही ब्रह्मयज्ञ मान लेना चाहिए, अतः ब्रह्मयज्ञ को तर्पण के पूर्व प्रातः-होम के पूर्व या वैश्वदेव के उपरान्त करना चाहिए। आश्वलायन गृह्यसूत्र (३।२।१) की व्याख्या में नारायण ने कहा है कि ब्रह्मयज्ञ वैश्वदेव के पूर्व या उपरान्त किया जा सकता है। कात्यायन के स्नानसूत्र के अनुसार ब्रह्मयज्ञ तर्पण के पूर्व होता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र ने, जैसा कि हमने ऊपर तर्पण के विवेचन में देख लिया है, तर्पण को ब्रह्मयज्ञ का अंग मान लिया है। मनु (३। ८२, विष्णुधर्मसूत्र ६७।२३-२५) के मत से मोज्य या जल या दूध या कन्द-मूल-फलों से आह्निक श्राद्ध सम्पादित करके पितरों को परितृप्त करना चाहिए। मनु (३७० एवं २८३) ने पुनः कहा है कि (स्नान के उपरान्त किया हुआ) तर्पण पितृयज्ञ का अंग है। अतः गोभिल (२।२८) के मत से पितृयज्ञ में श्राद्ध, तर्पण एवं बलि पायी जाती हैं, इनमें से एक के प्रयोग से पितृयज्ञ पूर्ण हो जाता है और तीनों के सम्पादन की कोई आवश्यकता नहीं है। बलिहरण में (जिसका वर्णन आगे किया जायगा) बलि का शेषांश पितरों को दिया जाता है (आश्वलायनगृह्यसूत्र १२।११ एवं मनु ३।९१)।
ब्रह्मयज्ञ ब्रह्मयज्ञ के विषय में सम्भवतः अत्यन्त प्राचीन वर्णन शतपथब्राह्मण (१।५।६।३-८) में मिलता है। इस ब्राह्मण ने बताया है कि ब्रह्मयज्ञ प्रतिदिन का वेदाध्ययन (या स्वाध्याय) है। इस ब्राह्मण ने ब्रह्मयज्ञ के कुछ आवश्यक उपकरणों के नाम दिये हैं, यथा जुहू चमस, उपमृत, ध्रुवा, नुव, अवमृथ (यज्ञ के उपरान्त पवित्र स्नान) । (इन पात्रों की व्याख्या श्रौत यज्ञों के अध्ययन में होगी।) वाणी, मन, आँख, मानसिक शक्ति, सत्य एवं निष्कर्ष (जो ब्रह्मयज्ञ में उपस्थित रहते हैं) स्वर्ग के प्रतिनिधि-से हैं । शतपथब्राह्मण में लिखा है कि जो दिन-प्रति-दिन स्वाध्याय करता (वैदिक पाठ पढ़ता) है उसे उस लोक से तिगुना फल होता है, जो दान देने या पुरोहित को धन-धान्य से पूर्ण सारा संसार देने से प्राप्त होता है। देवों को जो दूध, घी, सोम आदि दिये जाते हैं उनकी और ऋचाओं, यजुओं, सामों एवं अथर्वागिरसों की तुल्यता कही गयी है। यह भी आया है कि देवता लोग प्रसन्न होकर ब्रह्मयज्ञ करने वाले को सुरक्षा, सम्पत्ति, आय, बीज, उसका सम्पूर्ण सत्त्व तथा सभी प्रकार के मंगलमय पदार्थ देते हैं, और उसके पितरों को घी एवं मधु की धारा से सन्तुष्ट करते हैं।
शतपथब्राह्मण (११।५।६।८) ने वेदों के अतिरिक्त ब्रह्मयज्ञ में अन्य ग्रन्थों के अध्ययन की बात चलायी है, यथा-अनुशासन (वेदांग), विद्या (सर्प एवं देवजन विद्या-छान्दोग्योपनिषद् ७।१।१), वाकोवाक्य (ब्रह्मोद्य नामक
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