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धर्मशास्त्र का इतिहास
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति (जिसमें असंख्य जीव रहते हैं) अपने कर्तव्यों का पालन। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की प्रमुख प्रेरणा है स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः एञ्च महायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता एवं सदाशयता देखने में आती है।
पञ्च महायज्ञों के मूल में क्या है ? इनके पीछे कौन से स्थायी भाव हैं ? ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में वर्णित पवित्र श्रौत यज्ञों का सम्पादन सबके लिए सम्भव नहीं था। किन्तु स्वर्ग के मुख अग्नि में एक समिधा डालकर सभी कोई देवों के प्रति अपने सम्मान की भावना को अभिव्यक्त कर सकते थे। इसी प्रकार दो-एक श्लोकों का जप करके कोई भी प्राचीन ऋषियों, साहित्य एवं संस्कृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकता था; और इसी प्रकार एक अञ्जलि या एक पात्र-जल के तर्पण से कोई भी पितरों के प्रति भक्ति एवं प्रिय स्मृति प्रकट कर सकता था और पितरों को सन्तुष्ट कर सकता था। सारे विश्व के प्राणी एक ही सृष्टि-बीज के द्योतक हैं, अतः सबम आदान-प्रदान तथा 'जिओ एवं जीने दो' का प्रमख सिद्धान्त कार्य रूप में उपस्थित रहना चाहिए। उपर्युक्त वणित भक्ति, कृतज्ञता, सम्मान, प्रिय स्मृति, उदारता, सहिष्णुता की भावनाओं ने प्राचीन आर्यों को पञ्च महायज्ञों की महत्ता प्रकट करने को प्रेरित किया। इतना ही नहीं, इसीलिए गौतम ऐसे सूत्रकारों तथा मनु (२।२८) ऐसे व्यवहार-निर्माताओं (कानून बनाने वालों) ने पञ्च महायज्ञों को संस्कारों में परिगणित किया, जिससे कि पञ्च महायज्ञ करनेवाले स्वार्थो से बहुत ऊपर उठकर अपने आत्मा को उच्च बनायें और अपने शरीर को पवित्र कर उसे उच्चतर पदार्थों के योग्य बनायें।' कालान्तर में प्रति दिन के महायज्ञों के साथ अन्य उद्देश्य भी आ जुटे। मनु (३१६८-७१), विष्णुधर्मसूत्र (५९।१९-२०), शंख (५।१-२), हारीत, मत्स्यपुराण (५२।१५-१६) तथा अन्य लोगों के मत से प्रत्येक गृहस्थ अग्निकुण्ड, चक्की, झाडू, सूप, जलघट तथा अन्य घरेलू सामग्रियों (यथा चूर्णलेप) से प्रति दिन प्राणियों को आहत करता एवं मारता है, अतः इन्हीं पापों से छुटकारा पाने के लिए प्राचीन ऋषियों ने पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था की। ये पाँच अतिपूत यज्ञ हैं ब्रह्मयज्ञ (बेद का अध्ययन एवं अध्यापन), पितृयज्ञ (पितरों का तर्पण), देवयज्ञ (अग्नि में आहुतियाँ देना), भूतयज्ञ (जीवों को अह दान देना) एवं मनुष्ययज्ञ (अतिथि-सत्कार) । जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार पञ्च महायज्ञ करता है वह उपर्युक्त वणित पाँचों स्थानों से उत्पन्न पापों से मुक्ति पाता है। मनु (३१७३-७४) का कहना है कि प्राचीन ऋषियों ने पञ्च महायज्ञों का अन्य नामों से उल्लेख किया है, यथा अहुत, हुत, प्रहुत, ब्राहम्य-हुत एवं प्राशित जो क्रम से जप (या ब्रह्मयज्ञ), होम (देवयज्ञ), भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ एवं पितृतर्पण (पितृयज्ञ) हैं। अथर्ववेद (६७११२) में उपयुक्त पाँच में चार का वर्णन मिलता है। हुत एवं प्रहुत तो बृहदारण्यकोपनिषद् (१।५।२) में होम (देवयज्ञ) एवं बलि (भूतयज्ञ) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। किन्तु गृह्यसूत्रों में इनके अर्थ विभिन्न रूप से लगाये गये हैं, यथा शांखायनगृह्यसूत्र (१५) एवं पारस्करगृह्यसूत्र (१।४) के अनुसार चार पाकयज्ञ हैं-हुत, अहुत, प्रहुत एवं प्राशित, जो शांखायनगृह्यसूत्र (१।१०।७) के मत से क्रमश: अग्निहोत्र (या देवयज्ञ), बलि (भूतयज्ञ), पितृयज्ञ एवं ब्राहम्य-हुत (या. मनुष्ययज्ञ) हैं।
हारीतधर्मसूत्र ने बड़े ही मनोरम ढंग से एक उक्ति कही है-"अब हम सूनाओं (घातक स्थलों की व्याख्या करेंगे। ये सूना इसी लिए कही जाती हैं कि चल एवं अचल प्राणियों की हत्या करती है। प्रथम सूना वह है जो अचानक जल में प्रवेश, जल में डुबकी लेने, जल में हिलोरें लेने, विभिन्न दिशाओं में थपेड़े देने, वस्त्र से बिना छाने हुए जल ग्रहण करने एवं गाड़ियों के चलाने आदि की क्रियाओं से उत्पन्न होती है। दूसरी वह है जो अन्धकार में इधर-उधर चलने, मार्ग को
४. स्वाध्यायेन व्रत.मस्त्रविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञश्च यज्ञश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥ मनु (२०२८)।
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