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________________ अध्याय १८ पञ्च महायज्ञ वैदिक काल से ही पञ्च महायज्ञों के सम्पादन की व्यवस्था पायी जाती है। शतपथब्राह्मण (११।५।६।१) का कथन है- "केवल पाँच ही महायज्ञ हैं, वे महान् सत्र हैं और वे हैं भूतयज्ञ मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ ।"" तैत्तिरीयारण्यक (११।१० ) में आया है - "वास्तव में, ये पञ्च महायज्ञ अजस्त्र रूप से बढ़ते जा रहे हैं और ये हैं बेवयश, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ ।" जब अग्नि में आहुति दी जाती है, भले ही वह मात्र समिधा हो, तो यह वेवयज्ञ है; जब पितरों को स्वधा ( या श्राद्ध) दी जाती है, चाहे वह जल ही क्यों न हो, तो वह पितृयज्ञ है; जब जीवों को (भोजन का ग्रास या पिण्ड) दी जाती है तो वह भूतयज्ञ कहलाता है; जब ब्राह्मणों (या अतिथियों) को भोजन दिया जाता है तो उसे मनुष्ययज्ञ कहते हैं और जब स्वाध्याय किया जाता है, चाहे एक ही ऋचा हो या यजुर्वेद मा सामवेद का एक ही सूक्त हो, तो वह ब्रह्मयज्ञ कहलाता है । आश्वलायनगृह्यसूत्र ( ३।१।१-४ ) ने भी पञ्च महायज्ञों की चर्चा करके तैत्तिरीयारण्यक की भाँति ही उनकी परिभाषा दी है और कहा है कि उन्हें प्रति दिन करना चाहिए।' आश्वलायनगृह्यसूत्र ( ३ । १ । २ ) की व्याख्या में नारायण एवं पराशरमाधवीय (१।१, पृ० ११) ने लिखा है कि पञ्च महायज्ञों का आधार तैत्तिरीयारण्यक में ही पाया जाता है। यही बात आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।४।१२।१३ - १५ एवं १।४ । १३ । १ ) ने भी कही है।' गौतम (५।८ एवं ८।१७), बौघा - यनधर्मसूत्र ( २।६।१-८), गोभिलस्मृति (२।१६) तथा अन्य स्मृतियों ने भी पञ्च महायज्ञों का वर्णन किया है। गौतम ( ८1७) ने तो इन महायज्ञों को संस्कारों के अन्तर्गत गिना है। पञ्च महायज्ञों की महत्ता पञ्च महायज्ञों एवं श्रौत यज्ञों में दो प्रकार के अन्तर हैं । पञ्च महायज्ञों में गृहस्थ को किसी व्यावसायिक पुरोहित की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु श्रौत यज्ञों में पुरोहित मुख्य हैं और गृहस्थ का स्थान केवल गौण रूप में रहता है। दूसरा अन्तर यह है कि पञ्च महायज्ञों में मुख्य उद्देश्य है विघाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों एवं १. पञ्चैव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति । शतपथ ब्राह्मण ११।५।६।७। याज्ञवल्क्य (१०१०१) को टीका में विश्वरूप ने भी इसे उद्धृत किया है। २. अथातः पञ्च यज्ञाः । देवयज्ञो भूतयज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञो मनुष्ययज्ञ इति । आश्व० गृ० ३|१|१-२; पञ्चयज्ञानां हि तैत्तिरीयारण्यकं मूलं पञ्च वा एते महायज्ञा इत्यादि । ३. अथ ब्राह्मणोक्ता विषयः । तेषां महायज्ञा महासत्राणि च संस्तुतिः । अहरहर्भूतबलिर्मनुष्येभ्यो यथाशक्ति दानम् । देवेभ्यः स्वाहाकार आ काष्ठात् पितृभ्यः स्वधाकार ओदपात्रावृषिभ्यः स्वाध्याय इति । आप० घ० सू० ( १|४|१२|१३ एवं १|४|१३|१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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