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धर्मशास्त्र का इतिहास (देखिए मत्स्यपुराण २१३॥२-८)। तैत्तिरीय संहिता (६५) में यम के सम्मान में प्रति मास बलि देने की बात पायी जाती है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्म के सम्मान में भी तर्पण होता था (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १९८) ।
गोमिलस्मृति (२१२२-३३) ने लिखा है कि संसार में सभी प्रकार के जीव (स्थावर एवं चर) ब्राह्मण से जल की अपेक्षा रखते हैं, अतः उसके द्वारा इनको तर्पण किया जाना चाहिए, यदि वह तर्पण नहीं करता है तो महान् पाप का भागी है, यदि वह तर्पण करता है तो इस प्रकार वह संसार की रक्षा करता है।
कुछ लोगों के मत से तर्पण प्रातः स्नान के उपरान्त किया जाना चाहिए; कुछ लोगों ने लिखा है कि इसे प्रति दिन दो बार करना चाहिए, किन्तु कुछ लोगों ने केवल एक बार करने की व्यवस्था दी है। आश्वलायनगृह्यसूत्र ने स्वाध्याय (या ब्रह्मयज्ञ) के तुरत उपरान्त ही तर्पण का समय रखा है, जिससे पता चलता है कि तर्पण स्वाध्याय का मानो एक अंग था। गोभिलस्मृति (२।२९) का कहना है कि ब्रह्मयज्ञ (जिसमें वैदिक मन्त्रों का जप किया जाता है) तर्पण के पूर्व या प्रातः होम के उपरान्त या वैश्वदेव के अन्त में किया जाना चाहिए, और विशेष कारण को छोड़कर किसी अन्य समय में इसका सम्पादन वर्जित है।
आह्निकप्रकाश (पृ० ३३६-३७७) ने कात्यायन, शंख, बौधायन, विष्णुपुराण, योग-याज्ञवल्क्य, आश्वलायन एवं गोमिलगृह्य के अनुसार तर्पण का सारांश उपस्थित किया है।
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