________________
freeकर्म
३७५ वल्क्य १।२२१ ) । जो येता एवं औपासन अग्नि रखता है उसे चतुरग्नि कहा जाता है। जो केवल नेता रखता है उसे यग्नि कहा जाता है। जो केवल औपासन एवं लौकिक अग्नि रखता है उसे द्वग्नि कहा जाता है और जो केवल लौकिक अग्नि रखता है उसे एकाग्नि कहा जाता है। " किसी व्यक्ति की शाखा के गृह्यसूत्र में वर्णित कृत्य औपासनाग्नि में किये जाते थे, किन्तु स्मृतियों में वर्णित कृत्य लौकिक अग्नि में सम्पादित होते थे। किन्तु यदि किसी के पास लौकिक अग्नि को छोड़कर कोई अन्य अग्नि न हो तो उसी अग्नि में सभी प्रकार के कृत्य किये जा सकते हैं। अग्नि-पूजा पर इतना जो ध्यान दिया गया है वह सूर्य के प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन है। अग्नि में जो आहुतियाँ दी जाती हैं वे सूर्य तक पहुँचती हैं, सूर्य हमें वर्षा देता है जिससे अन्न मिलता है और हम सबका पेट पलता है। यही है अग्नि-पूजा के पीछे वास्तविक रहस्य (मनु ३७६, शान्तिपर्व २६४ ११, स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १५५ एवं पराशरमाघवीय १११, पृ० १३० ) ।
गृह्याग्नि रखने के काल के बारे में अन्य मत भी हैं। गौतम ( ५/६ ), याज्ञवल्क्य (१1९७), पारस्करगृह्यसूत्र (११२) एवं अन्य लोगों के मत से जब कोई कुटुम्ब से पृथक् हो, तब भी गृह्याग्नि रखी जा सकती है। शांखायनगृह्यसूत्र ( १।१।२-५ ) ने सब मिलाकर चार विकल्प रखे हैं, जिनमें दो के बारे में पहले ही कहा जा चुका है। शेष दो ये हैं -- शिष्य गुरुकुल से चलते समय जिस अग्नि में अन्तिम समिधा डालता है, उसमें से अग्नि लेकर घर आ सकता है; पिता की मृत्यु पर ज्येष्ठ पुत्र या ज्येष्ठ भाई की मृत्यु पर छोटा भाई अग्नि प्रज्वलित कर सकता है (यदि अभी भी संयुक्त परिवार चल रहा हो और सम्पत्ति का बँटवारा न हुआ हो) । बौधायनगृह्यसूत्र (२।६।१७ ) के मत से वही गृह्याग्नि है जिसके द्वारा उपनयन संस्कार हुआ है, उपनयन से समावर्तन तक होम केवल समिधा तथा व्याहृतियों के उच्चारण से होता है, समावर्तन से विवाह तक व्याहृतियों एवं घृत से होता है तथा विवाह से आगे पके हुए चावल या जौ की आहुतियों से होता है ।
जिन देवताओं के लिए प्रातः एवं सायं अग्निहोत्र किया जाता है, वे हैं अग्नि एवं प्रजापति । कुछ लोगों के मत से प्रातःकाल सूर्य अग्नि का स्थान ग्रहण करता है ( देखिए, बौधायनगृह्यसूत्र २।७।२१, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र १४२६०९, मारद्वाजगृह्यसूत्र ३।३ एवं आपस्तम्बगृह्यसूत्र ७/२१ ) ।
प्रातः एवं सायं पके हुए भोजन की आहुतियाँ दी जाती हैं, किन्तु उन्हीं अन्नों की हवि बनायी जाती है जो अग्नि को दिये जाने योग्य हों (आश्वलायनगृह्यसूत्र १।२।१) । पका हुआ चावल या जौ ही बहुधा दिया जाता है (आपस्तम्बगृह्यसूत्र ७।१९)। गोभिलस्मृति ( १।१३१, ३।११४ ) के अनुसार हविष्यों में प्रमुख हैं यव (जौ), फिर चावल, किन्तु माष, कोद्रव एवं गौर की कभी भी हवि नहीं बनानी चाहिए, चाहे और कुछ हो या न हो । यव और चावल के अभाव में दही, दूध या इनके अभाव में यवागू (माँड़) या जल देना चाहिए। आश्वलायनगृह्यसूत्र ( ११९/६ ) की टीका में नारायण ने एक श्लोक उद्धृत करके अग्नि में छोड़ने के लिए दस प्रकार के हविष्यों के नाम लिये हैं, यथा दूध, दही, यवागू, घृत, पका चावल, छाँटा हुआ (भूसी निकाला हुआ ) चावल, सोम, मांस, तिल या तेल एवं जल ( इस विषय में और देखिए मनु ३।२५७ एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र २।६।१५।१२- १४ ) । कुछ यज्ञों में मांस की आहुतियाँ दी जाती हैं, किन्तु प्रातः एवं सायं के होम में इसका प्रयोग नहीं हो सकता ( आश्वलायनगृह्यसूत्र १।९।६ ) | एक सामान्य नियम यह है कि यदि किसी विशिष्ट वस्तु का नाम नहीं लिया गया हो तो घृत की ही आहुति दी जानी चाहिए, और यदि किसी
३३. गृहस्थस्तु षडग्निः स्यात्पञ्चाग्निश्चतुरग्निकः । स्याउ द्विध्यग्निरथं काग्निर्नाग्निहीनः कथंचन । स्मृत्यर्थसार, पु० १४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org