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________________ ३७४ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रज्वलित करता था, वह उसमें प्रति दिन आहुतियाँ डालता था। बहुत प्राचीन काल में भी बहुत ही कम लोग श्रौत अग्नि प्रज्वलित रखते थे । गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में ऐसे स्पष्ट संकेत मिलते हैं, जिनके आधार पर हम कह सकते हैं कि कुछ लोग अग्नि प्रज्वलित रखते थे और कुछ लोग नहीं (आश्वलायनगृह्यसूत्र १/१/४ ) । वेदाध्ययन करना, नमस्कार करना एवं अग्नि में समिधा डालना भी वास्तविक यज्ञ माना जाता था। इससे स्पष्ट है कि श्रौत अग्नि सबके लिए अनिवार्य नहीं थी । किन्तु प्राचीन भारत में अग्निहोत्र की बड़ी महत्ता थी ( छान्दोग्योपनिषद् ५।२४।५ ) । तीन पवित्र अग्नियाँ ( त्रेता) थीं; आहवनीय, गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि । आहवनीय अग्नि-स्थान वर्गाकार, गार्हपत्य का वृत्ताकार (क्योंकि पृथिवी गोल है) एवं दक्षिणाग्नि-स्थान चन्द्र के गोलार्ध के बराबर होता था। ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में अग्न्याधान ( अग्नि प्रज्वलित करने ), कतिपय यज्ञों एवं उनके विस्तार के विषय लम्बा विवेचन किया गया है । हम स्थान - संकोच के कारण इन बातों का विवेचन यहाँ नहीं उपस्थित करेंगे। इस भाग के अन्त में श्रीत यज्ञों के विषय में थोड़ा विवेचन उपस्थित कर दिया जायगा । लगभग दो सहस्र वर्षों से पशु-यज्ञ एवं सोम-यज्ञ बहुत कम हुए हैं, केवल कुछ राजाओं, सामन्तों एवं धनिक लोगों ने ही ऐसा किया है। मध्य काल में कुछ ब्राह्मण लोग अमावस्या एवं पूर्णमासी के यज्ञ, आग्रयण इष्टि एवं चातुर्मास्य यज्ञ करते थे । किन्तु आधुनिक काल में ऐसे भी यज्ञ नहीं होते दिखाई पड़ते । सहस्रों ब्राह्मणों में एक अग्निहोत्री का मिलना भी कठिन ही है। जो व्यक्ति पवित्र अग्नि प्रज्वलित करता था वह प्रातः एवं सायं नित्य श्रौताग्नि में अग्निहोत्र अर्थात् घृत की आहुतियाँ डालता था । प्रत्येक गृहस्थ को प्रातः एवं सायं होम करना पड़ता था ( मनु ४।२५, याज्ञवल्क्य १९९, आपस्तम्बधर्मसूत्र १।४।१३।२२ एवं १।४।१४। १ ) । जो लोग श्रौत अग्नि नहीं जलाते थे, किन्तु होम करते थे, उनकी अग्नि को औपासन, आवसथ्य, औपसद, वैवाहिक, स्मार्त या गृह्य या शालाग्नि कहा जाता था। कुछ लोगों के मत से गृह्याग्नि वैवाहिक अग्नि है और यह विवाह के दिन ही प्रज्वलित की जाती है। हमने पहले ही देख लिया है कि जब वर विवाहोपरान्त अपने ग्राम को लौटता था तो विवाहाग्नि भी उसके आगे-आगे ले जायी जाती थी। जिस पात्र में वैवाहिक अग्नि ले जायी जाती थी उसे उखा कहते थे (देखिए आपस्तम्बगृह्यसूत्र ५।१४-१५) । आश्वलायनगृह्यसूत्र ( १/९/१ - ३ ) के मत से पाणिग्रहण के उपरान्त उसे या उसकी पत्नी या पुत्र या पुत्री या शिष्य को गृह्याग्नि की पूजा करनी पड़ती है। इसकी पूजा (होम) लगातार होनी चाहिए।" हो सकता है कि किसी कारण वैवाहिक अग्नि बुझ जाय, यथा पत्नी के मर जाने या असावधानी के कारण, तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति को लौकिक अग्नि या पचन अग्नि ( भोजन बनाने वाली अग्नि) में प्रति दिन होम करना चाहिए। इस प्रकार अब तक हमने पाँच प्रकार की अग्नियों के नाम - पढ़े, यथा--तीन श्रौत अग्नि ( आहवनीय, गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि), औपासन या गृह्याग्नि तथा लौकिक । एक अन्य अग्नि भी होती है, जिसे सभ्य ( और यह है छठी अग्नि ) कहते हैं । मनु ( ३|१८५ ) की व्याख्या में मेधातिथि ने लिखा है कि सभ्य अग्नि वह है जो किसी धनिक के प्रकोष्ठ में शीत हटाने एवं उष्णता लाने के लिए प्रज्वलित की जाती है। शतपथब्राह्मण के अनुवादक ने लिखा है कि सभ्याग्नि क्षत्रियों द्वारा प्रज्वलित की जाती थी । कात्यायनश्रौतसूत्र (४) ९/२० ) के अनुसार सभ्य अग्नि भी गार्हपत्य की भाँति मन्थन से उत्पन्न की जाती थी । आपस्तम्बश्रौतसूत्र ( ४/४/७ ) लिखा है कि आहवनीय अग्नि के पूर्व सभ्य अग्नि प्रज्वलित रखनी चाहिए। स्मृत्यर्थसार ( पृ० १४ ) ने लिखा है कि गृहस्थ को ६, ५, ४, ३, २ या १ अग्नि जलानी चाहिए, बिना अग्नि के उसे नहीं रहना चाहिए । जब कोई नेता (आहवनीय, गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि), औपासन, सभ्य एवं लौकिक (साधारण अग्नि) रखता है, उसे छ: अग्नियों बाला (ग्नि) कहा जाता है, जिसके पास त्रेता, औपासन एवं सभ्य अग्नियाँ रहती हैं, वह पञ्चाग्नि कहलाता है, इसी व्यक्ति को 'पंक्तिपावन' ब्राह्मण (जो भोजन के समय पंक्ति में बैठनेवालों को अपनी उपस्थिति से पवित्र करता है) कहा जाता है (देखिए गौतम १५/२९, आपस्तम्बधर्मसूत्र २७।१७।२२, वसिष्ठधर्मसूत्र ३|१९, मनु ३।१८५, याज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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