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नित्यकर्म
३७३ (आह्निक, पृ० ३१०) ने उन लोगों की भर्त्सना की है जो वैष्णवों एवं शैवों के चिह्नों का भेद एवं झगड़ा खड़ा करते हैं।
स्नान के उपरान्त सन्ध्या (याज्ञवल्क्य ११९८) की जाती है। इसका वर्णज हमने उपनयन के अध्याय (७) में कर दिया है।
सन्ध्या-वन्दन के उपरान्त होम किया जाता है (दक्ष २।२८ एवं याज्ञवल्क्य ११९८-९९)। यदि ब्राह्मण प्रातः स्नान करके लम्बी सन्ध्या करे तो उसे होम करने का समय नहीं प्राप्त हो सकता। एक मत से सूर्योदय के पूर्व ही होम हो जाना चाहिए (अनुदिते जुहोति), और दूसरे मत से सूर्योदय के उपरान्त (उदिते जुहोति) । किन्तु दूसरे मत से भी सूर्य के एक बित्ता ऊपर चढ़ने के पूर्व ही होम हो जाना चाहिए (गोभिलस्मृति १११२३)।" सायंकाल का होम तव होना चाहिए जब तारे निकल आये हों और पश्चिम क्षितिज में अरुणाभा समाप्त हो गयी हो (गोभिलस्मृति १।१२४) । आश्वलायनश्रौतसूत्र (२।२) एवं आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।९।५) के अनुसार होम संगव (दिन की अवधि के पाँच भागों के द्वितीय भाग) के उपरान्त होना चाहिए । इसी से कुछ लोगों ने प्रातः सन्ध्या के उपरान्त होम की बात चलायी है (देखिए, स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १६३ में उद्धृत भरद्वाज ; नित्याचारपद्धति, पृ० ३१४ एवं संस्कारप्रकाश, पृ० ८९०)। यह हम पहले ही देख चुके हैं कि मनुष्य पर तीन ऋण होते हैं; देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण, जिनमें प्रथम को हम होम द्वारा चुकाने का प्रयत्न करते हैं और इसी लिए जीवन भर अग्निहोत्र यज्ञ करने की व्यवस्था है। जिस अग्नि में होम होता है, वह धौत या स्मार्त हो सकती है। श्रौत अग्नि के लिए कुछ नियम थे। केवल वही व्यक्ति, जिसके केश पके न हों, जो पुत्रवान् है या उस अवस्था का है जब कि वह पुत्रवान् हो सकता है, श्रौत अग्नि प्रज्वलित कर सकता था। श्रौत अग्नि उत्पन्न करने के विषय में दो मत हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र (२११४५-४८.) के मत से "ब्राह्मण के लिए तीन श्रौत अग्नियाँ प्रज्वलित करना अनिवार्य था और उनमें दर्श-पूर्णमास (अमावस्या एवं पूर्णमासी के यज्ञ), आग्रयण इष्टि, चातुर्मास्य, पशु एवं सोमयज्ञ किये जाते थे, क्योंकि ऐसा करने का नियम था और इसे ऋण चुकाना मानते थे।३२ जैमिनि (५।४।१६) की व्याख्या में शबर ने लिखा है कि पवित्र अग्नि की स्थापना का कोई विशिष्ट निश्चित दिन नहीं है, किसी भी दिन पवित्र अभिलाषा उत्पन्न होने पर अग्नि स्थापित की जा सकती है। त्रिकाण्डमण्डन (१।६-७) ने दो मत प्रकाशित किये हैं--एक मत से आधान (श्रौत अग्नि का प्रज्वलित करना) नित्य (अनिवार्य) है, किन्तु दूसरे मत में यह केवल काम्य (किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया) है। जो व्यक्ति पवित्र अग्नि
३१. सन्ध्याकर्मावसाने तु स्वयं होमो विधीयते। दक्ष २।२८; प्रादुष्करणमग्नीनां प्राता च दर्शनात् । हस्तादूर्ध्व रविर्यावद् गिरि हित्वा न गच्छति । तावद्धोमविधिः पुण्यो नान्योऽभ्युदितहोमिनाम् ॥ गोभिलस्मृति १३१२२१२३ । होमकाल के विषय में मनु (२०१५) ने कई मत दिये हैं। और देखिए स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १६१; बौधायनगृह्य सं० परिशिष्ट १।७२ । स्मृत्यर्थसार पृ० ३५--प्रात)मे संगवान्तः कालस्त्वनुदिते तथा। सायमस्तमिते होमकालस्तु नव नाडिकाः॥
३२. मनु (४।२६) के मत से वर्षाकाल के उपरान्त नवीन अन्न के आगमन पर 'आग्रयणेष्टि' की जाती थी, पशु-यज्ञ उतरायण एवं दक्षिणायन के आरम्भ में किया जाता था (अर्थात् दो बार) और सोमयज्ञ वर्ष के आरम्भ में केवल एक बार किया जाता था। देखिए याज्ञवल्क्य (१३१२५-१२६)।
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