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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास तिलक या चिह्न अंकन स्नानोपरान्त आचमन करके (दक्ष २।२० ) अपनी जाति एवं सम्प्रदाय के अनुसार मस्तक पर चिह्न बनाना चाहिए, जिसे तिलक, ऊर्ध्वपुण्ड्र, त्रिपुण्ड्र आदि कहा जाता है। इस विषय में आह्निकप्रकाश ( पृ० २४८-२५२), स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० २९२ - ३१० ) में विस्तार के साथ नियम दिये गये हैं । ब्रह्माण्डपुराण में आया है कि ऊर्ध्वपुण्ड्र (मस्तक पर एक या अधिक खड़ी रेखाओं) के लिए पर्वत-शिखर, नदी-तट (गंगा, सिन्धु आदि पवित्र नदियों ट), विष्णु के पवित्र स्थल, वल्मीक एवं तुलसी की जड़ से मिट्टी लेनी चाहिए। अँगूठा, मध्यमा एवं अनामिका का ही प्रयोग तिलक देते समय होना चाहिए, नख का स्पर्श मिट्टी से नहीं होना चाहिए। चिह्न के स्वरूप निम्न प्रकार के होने चाहिए; दीप की ज्वाला, बाँस की पत्ती, कमल की कली, मछली, कछुआ, शंख के समान चिह्न का आकार दो से लेकर दस अंगुल तक हो सकता है। ये चिह्न मस्तक, छाती, गले एवं गले के नीचे के गड्ढे, पेट, वाम एवं दक्षिण भागों, बाहुओं, कानों, पीठ, गर्दन के पीछे होने चाहिए और इन बारहों स्थानों पर चिह्न लगाते समय विष्णु के बारह नामों ( केशव, नारायण आदि) का उच्चारण होना चाहिए। त्रिपुण्ड्र चिह्न (तीन टेढ़ी रेखाएँ) भस्म से तथा तिलक चन्दन से किया जाता है । " ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार स्नान करने के उपरान्त भुरभुरी मिट्टी से ऊर्ध्वपुण्ड्र इस प्रकार बनाया जाता है कि वह हरि के चरण के समान लगने लगे, इसी प्रकार होम के उपरान्त त्रिपुण्ड्र तथा देवपूजा के उपरान्त चन्दन से तिलक लगाया जाता है।" स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ०२९२) ने वासुदेवोपनिषद् का मत प्रकाशित किया है कि गोपीचन्दन या उसके अभाव में तुलसी की जड़ की मिट्टी से मस्तक तथा अन्य स्थानों पर ऊर्ध्वपुण्ड्र चिह्न बनाना चाहिए। स्मृतिमुक्ताफल द्वारा उद्धृत (आह्निक, पृ० २९२) विष्णु के मत से यदि बिना ऊर्ध्वपुण्ड्र के यज्ञ, दान, जप, होम, वेदाध्ययन, पितृ तर्पण किया जाय तो निष्फल होता है । वृद्ध हारीतस्मृति ( २।५८-७२ ) में ऊर्ध्वपुण्ड्र के विषय में बड़े विस्तार के साथ लिखा है। स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० २९६) ने लिखा है कि पाशुपत एवं अन्य शैव सम्प्रदाय के लोगों ने ऊर्ध्वपुण्ड्र की निन्दा की है और त्रिपुण्ड्र की प्रशंसा की है, इसी प्रकार पाञ्चरात्र के कथनों से त्रिपुण्ड्र की निन्दा तथा शंख, चक्र, गदा एवं विष्णु के अन्य आयुध चिह्नों की प्रशंसा झलकती है। माध्व सम्प्रदाय के वैष्णव भक्त लोग अपने शरीर पर विष्णु के आयुधों यथा-- शंख, चक्र आदि को गरम धातु (तप्त मुद्रा) द्वारा अंकित करते हैं (आरम्भिक काल में ईसाई लोग भी लाल लोहे से मस्तक पर 'कास' का चिह्न बनाते थे ) । वृद्धहारीत ( २१४४-४५), पृथ्वीचन्द्रोदय आदि ग्रन्थों ने इस प्रकार के चिह्नांकन (गरम लोहे से शरीर पर शंख आदि के चिह्न दागने) की भर्त्सना की है और उसे शूद्र के लिए ही योग्य माना है। किन्तु वायुपुराण एवं विष्णुपुराणों ने ऐसे चिह्नांकन का समर्थन किया है (स्मृत्यर्थसार द्वारा उद्धृत ) | कालाग्निरुद्रोपनिषद् में त्रिपुण्ड्र लगाने की विधि का वर्णन है। इसी प्रकार स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० ३०१), आचारमयूख आदि ने भी इसके बारे में विभिन्न मत प्रदर्शित किये हैं। स्मृतिमुक्ताफल ३७२ २८. पर्वताग्रे नदीतीरे मम क्षेत्रे विशेषतः । सिन्धुतीरे च वल्मीके तुलसीमूलमाश्रिते ॥ मृद एतास्तु संग्राह्य वर्जयेदन्यमृत्तिकाः ॥ ब्रह्माण्डपुराण (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० ११५ ); और देखिए नित्याचारप्रदीप, पृ० ४२-४३ । २९. ऊर्ध्वपुण्ड्रं मृदा कुर्यात्त्रिपुण्ड्रं भस्मना सदा । तिलकं वै द्विजः कुर्याच्चन्दनेन यदृच्छया । आह्निकप्रकाश, पृ० २५० एवं मदनपारिजात, पृ० २७९ द्वारा उद्धृत । त्रिपुण्ड्र की परिभाषा यों की गयी है—भ्रुवोर्मध्यं समारम्य यावदन्तो भवेद् भ्रुवोः । मध्यमानामिकांगुल्योर्मध्ये तु प्रतिलोमतः । अंगुष्ठेन कृता रेखा त्रिपुण्ड्राख्याभिधीयते ॥ ३०. द्वारवत्युद्भवं गोपीचन्दनं वेंकटोद्भवम् । सान्तरालं प्रकुर्वीत पुण्ड्रं हरिपदाकृतिम् ॥ श्राद्धकाले विशेपेण कर्ता भोक्ता च धारयेत् । वृद्धहारीत ८२६७-६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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