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________________ वस्त्रधारण ३७१ यथा गौतम (९।४-५), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।११।३०।१०-१३), बौधायनधर्मसूत्र (२।८।२४), मार्कण्डेयपुराण (३४।४२-४३) । गौतम, आपस्तम्बधर्मसूत्र, मनु (४।३४-३५), याज्ञवल्क्य (१।१३१) तथा अन्य लोगों के मत से स्नातक एवं गृहस्थ को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए और वे वस्त्र रंगीन, महंगे या कटे-फटे, गन्दे या दूसरे द्वारा प्रयुक्त नहीं होने चाहिए।" लाल (काषाय) कपड़ा धारण करके जप, होम, दान, श्राद्ध नहीं करना चाहिए, नहीं तो वे देवता के समीप नहीं पहुंच सकते।" नील के रंग में रंगा हुआ वस्त्र भी वर्जित है, यदि ऐसा कोई करता था तो उसे उपवास करना पड़ता था और पञ्चगव्य पीना पड़ता था। गौतम (९।५-७), मनु (४।६६), विष्णुधर्मसूत्र (७१।४७), मार्कण्डेयपुराण (३४।४२-४३) के अनुसार दूसरे के द्वारा प्रयोग में लाये गये जूते, कपड़े, यज्ञोपवीत, आभूषण, माला, घड़ा अपने प्रयोग में नहीं लाने चाहिए, किन्तु यदि ये मिल न सकें तो जूते, माला एवं वस्त्र घोकर काम में लाये जा सकते हैं। स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ११३) में उद्धृत गर्ग के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को क्रम से श्वेत, लाल के साथ चमकीले तथा पीले एवं शूद्र को काले तथा गन्दे वस्त्र धारण करने चाहिए। महाभारत के अनुसार देवपूजन के समय के वस्त्र मार्ग में चलते समय या सोते समय के वस्त्रों से भिन्न होने चाहिए। पराशरमाधवीय द्वारा उद्धृत प्रजापति के अनुसार तर्पण के समय रेशमी वस्त्र पहनना चाहिए, या वह जिसका रंग नारंगी हो, किन्तु मड़कोले रंग का वस्त्र नहीं धारण करना चाहिए। सम्भवतः इसी कारण कालान्तर में भोजन एवं देवपूजन के समय, भारत के कुछ प्रान्तों में रेशमी वस्त्र के धारण का नियम-सा हो गया है । मनु (४।१८) एवं विष्णुधर्मसूत्र (७११५-६) के मत से अपनी अवस्था, व्यवसाय, धन, विद्या, कुल एवं देश के अनुसार वस्त्र धारण करने चाहिए। वानप्रस्थ एवं संन्यासियों के वस्त्र धारण के विषय में हम आगे पढ़ेंगे। नीचे के वस्त्र के धारण की विधियों के विषय में स्मृतियों में नियम पाये जाते हैं। निचला वस्त्र तीन स्थानों पर बंधा हुआ (त्रि-कच्छ) या खोंसा हुआ होना चाहिए, यथा-नाभि के पास, बायीं ओर और पीछे की ओर । वह ब्राह्मण शूद्र है जो पीछे की लाँग या पिछुआ को पीछे की ओर नहीं बाँधता या एक छोर को पीछे पूंछ की भाँति लटका देता या गलत ढंग से गलत स्थान पर बाँधता है, या इसके घूमे हुए भाग को उसने कटि के चारों ओर बाँध लिया है, या शरीर के ऊपरी भाग को नीचे के वस्त्र से ढक लिया है (देखिए स्मृतिमुक्ताफल, आह्निक, पृ० ३५१-३५३ एवं स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० ११३-११४) । २४. सति विभवे न जीर्णमलवद्वासाः स्यात् ' न रक्तमुल्बणमन्यघृतं वासो बिभृयात्। गौ० ९।४-५; सर्वान् रागान् वाससि वर्जयेत्। कृष्णं च स्वाभाविकम्। अनूद्भासि वासो वसीत। अप्रतिकृष्टं च शक्तिविषये। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।११।३०।१०-१३)। २५. काषायवासा यान्कुरुते जपहोमप्रतिग्रहान्। न तद्देवगमं भवति हव्यकव्येषु यदविः॥ बौधायनधर्मसूत्र २२८१२४ (अपरार्क, पृ० ४६१ में उद्धृतं)। २६. उपानद्वस्त्रमाल्यावि धृतमन्यन धारयेत्। उपवीतमलंकारं करकं चैव वर्जयेत। मार्कण्डेयपुराण ३४॥ ४२-४३। २७. अन्यदेव भवेद्वासः शयनीयेन्यदेव तु। अन्यद्रश्यासु देवानाम यामन्यदेव तु॥ अनुशासन पर्व १०४॥ ४६ (अपरार्क द्वारा पृ० १७३ में तथ, गृहस्थरत्नाकर द्वारा पृ० ५०१ में उद्धृत)। माधवीये प्रजापतिः। क्षौमं वासः प्रशंसन्ति तर्पणे सदृशं तथा। काषायं धातुरक्तं वा नोल्बणं तत्तु कहिचित्॥ आचाररत्न, पृ० ३३। Jain Education International For Private & Personal use on For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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