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धर्मशास्त्र का इतिहास बाहरी वस्त्र को वासः एवं भीतरी को नीबि कहा गया है (८१२।१६)। ऋग्वेद (१११६२११६) में 'अधिवास' शब्द भी आया है जो सम्भवतः आवरण या चूंघट का द्योतक है। तैत्तिरीय संहिता (२।४।९।२) में काले मृग के चर्म का वर्णन हुआ है। शतपथब्राह्मण (५।२।११८) में कुश-वासः का नाम आया है। 'कौश' शब्द का अर्थ 'कुश घास का बना हुआ' या कौशेय अर्थात् 'रेशम का बना हुआ' हो सकता है। बृहदारण्यकोपनिषद् (२।३।६) में लाल रंग में रंगे हुए वस्त्र के साथ श्वेत रंग के ऊनी वस्त्र की चर्चा हुई है।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में वस्त्र ऊनी या सन का बना होता था, रेशमी (कौशेय) वस्त्र पूत अवसरों पर धारण किया जाता था, मृगचर्म भी वस्त्र के रूप में प्रयुक्त होता था तथा वस्त्र लाल रंग में रंगे भी जाते थे। सूती वस्त्र होते थे कि नहीं, इस विषय में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। सूत्रों एवं मनुस्मृति में सूती कपड़ों की स्पष्ट चर्चा मिलती है। इससे प्रकट होता है कि इसके कई शताब्दियों पूर्व सूती कपड़े का आविष्कार हो चुका था (विष्णुधर्मसूत्र ७१।१५ एवं ६३।२४) तथा मनु ८।३२६ एवं १२।६४)। यूनानी एरियन के उल्लेख से पता चलता है कि भारतीय वस्त्र रुई का बना होता था।
आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।४।२२-२३) के अनुसार गृहस्थ को ऊपरी तथा नीचे के अंगों के लिए दो वस्त्र तथा यदि दरिद्र हो तो एक जनेऊ धारण करना पड़ता था। वसिष्ठधर्मसूत्र (१२।१४) के अनुसार स्नातक को (जो छात्र-जीवन समाप्त करके लौटता है) ऊपर और नीचे वाला वस्त्र तथा एक जोड़ा जनेऊ (दो यज्ञोपवीत) धारण करने पड़ते थे। बौधायनधर्मसूत्र (१।३।२) ने भी यही बात कही है, किन्तु यह भी जोड़ दिया है कि स्नातक को पगड़ी पहननी चाहिए, मृगचर्म ऊपरी वस्त्र के रूप में धारण करना चाहिए तथा जूते और छाता प्रयोग में लाने चाहिए। अपरार्क (पृ० १३३-१३४) ने व्याघ्र एवं योगयाज्ञवल्क्य को उद्धत करके उपर्युक्त बातें दुहरायी हैं तथा योगयाज्ञवल्क्य की यह वात भी लिखी है कि यदि दूसरा स्वच्छ किया हुआ वस्त्र न मिल सके तो ऊन का कम्बल या सन का बना हुआ वस्त्र धारण करना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र (१।६।५-६, १०-११) ने यज्ञ एवं पूजा के समय नवीन या स्वच्छ वस्त्र धारण की बात कही है। यज्ञ करनेवाले, उसकी स्त्री तथा पुरोहितों को स्वच्छ एवं हवा में सुखाये हुए वस्त्र धारण करने चाहिए, किन्तु अभिचार (शत्रुओं की हानि) करने के लिए जो यज्ञ किये जाते हैं, उनमें पुरोहितों को लाल रंग में रंगे हुए वस्त्र एवं पगड़ी धारण करनी चाहिए। वैदिक यज्ञों में सन के बने हुए वस्त्र, उनके अभाव में सूती या ऊनी कपड़े धारण किये जाने चाहिए। जैमिनि (१०।४।१३) की व्याख्या में शबर ने श्रुति-उक्तियाँ उद्धृत की हैं और कहा है कि यज्ञ करनेवाले तथा उसकी पत्नी को आदर्श यज्ञ में नवीन वस्त्र धारण करना चाहिए तथा महाव्रत में नवीन वस्त्र के अतिरिक्त तार्य (रेशमी वस्त्र) तथा कुश घास का बना हुआ वस्त्र (पत्नी के लिए) धारण करना चाहिए। वेदाध्ययन, देवालय, कूप, तालाब आदि के निर्माण के समय, दान देते समय, भोजन करते समय या आचमन करते समय उत्तरीय धारण करना चाहिए। यही बात विष्णुपुराण (३।१२।२०) ने भी कही है। इस विषय में अन्य मत देखिए,
२२. महावते श्रूयते ताप्यं यजमान परिधत्ते दर्भमयं पत्नी इति । अस्ति तु प्रकृतौ अहतं वासः परिधत्ते इति । शबर (जैमिनि १०।४।१३) । तार्य किस प्रकार पवित्र किया जाता है, इसके लिए देखिए बौधायनधर्मसूत्र (१।६।१३)। 'अहत' शब्द के वो अर्थ हैं; (१) करघे पर से सीधे आया हुआ नवीन वस्त्र (विवाह या इसके समान मंगलमय कृत्यों में), (२) वह यस्त्र जो धोकर स्वच्छ कर दिया गया है, किन्तु महीनों से प्रयुक्त नहीं हुआ है और वास्तव में बिल्कुल नवीन है और उसकी कोर आदि दुरुस्त हैं। देखिए स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ११३)।।
२३. होमदेवार्चनाद्यासु क्रियासु पठने तथा। नेकवस्त्रः प्रवर्तत द्विजो नाचमने जपे॥ विष्णुपुराण ३।१२।२० (हेमाद्रि द्वारा व्रतखण्ड, पृ० ३५ में उवृत)।
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