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स्नान
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गौण स्नान जल द्वारा स्नान को वारण स्नान कहा जाता है (ऋग्वेद ७।४९।३ के अनुसार वरुण पानी के देवता हैं)। अन्य गौण स्नान छ: हैं-मन्त्र-स्नान, भौम स्नान, आग्नेय स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, मानस स्नान। इस प्रकार वारण को लेकर सात गौण स्नान कहे जाते हैं। ये स्नान रोगियों के लिए, समयाभाव या उस समय के लिए हैं, जब कि साधारण मुख्य स्नान करने में कोई कठिनाई या गड़बड़ी हो। दक्ष (२०१५-१६) एवं पराशर (१२।९-११) ने भौम एवं मानस प्रकारों को छोड़कर सभी गौण स्नानों की चर्चा की है, और मन्त्र-स्नान के स्थान पर ब्राह्म-स्नान रखा है। वैखानस गृह्यसूत्र (११२ एवं ५) ने मन्त्र एवं गुर्वनुज्ञा को समानार्थक माना है। गर्ग एवं बृहस्पति ने भौम एवं मानस को छोड़ दिया है और सारस्वत-स्नान जोड़ दिया है। सारस्वतस्नान में कोई विद्वान् व्यक्ति आशीर्वचन भी कहता है, यथा--"तुम गंगा तथा अन्य पवित्र जलों से युक्त सोने के घड़ों से स्नान करो" (आह्निकप्रकाश, पृ० १९६-१९७) । मन्त्र-स्नान में 'आपो हि ष्ठा' (ऋग्वेद १०।९।१-३) नामक मन्त्र के साथ जल का छिड़काव होता है, भौम (या पार्थिव) में भुरभुरी मिट्टी शरीर में पोत दी जाती है, आग्नेय में पवित्र विभूतियों (यज्ञ या होम की राखों) से शरीर स्वच्छ किया जाता है, वायव्य में गौ के खुरों से उठती हुई धूलि से स्नान करना होता है। दिव्य में सूर्य की किरणों के रहते (धूप में) वर्षा में स्नान करना होता है तथा मानस में भगवान् विष्णु का स्मरण मात्र पर्याप्त होता है।
तर्पण
देवताओं, ऋषियों एवं पितरों को जल देना स्नान का एक अंग है। तर्पण ब्रह्म-यज्ञ का भी अंग माना जाता है। जल में सिर तक डुबकी ले लेने के उपरान्त जल में खड़े रूप में ही तर्पण किया जाता है (देखिए मनु २११७६, विष्णुधर्मसूत्र ६४।२३-२४, पराशर १२।१२-१३)। अंजलि से धारा की ओर जल दिया जाता है। वस्त्र-परिवर्तन करके तट पर भी तर्पण किया जा सकता है। तर्पण के विषय में कई एव मत हैं। कुछ लोगों के मत से स्नान के उपरान्त तुरंत ही तर्पण करना चाहिए, यह सन्ध्या-पूजन के पूर्व होना चाहिए, और पुनः उसी दिन इसे ब्रह्मयज्ञ के अंग के रूप में करना चाहिए। किन्तु कुछ अन्य लोगों के मत से दिन में केवल एक बार सन्ध्या-प्रार्थना के उपरान्त इसे करना चाहिए (आह्निकप्रकाश, पृ० १९१)। अपनी-अपनी शाखा (वैदिक सम्प्रदाय) के अनुसार ही तर्पण किया जाता है। ब्रह्मयज्ञ के वर्णन में हम पुनः तर्पण के विषय में कुछ लिखेंगे।
विष्णुधर्मसूत्र (६४।९-१३) के अनुसार स्नान के उपरान्त पानी को हटाने के लिए सिर नहीं झटकना चाहिए, हाथ से भी पानी को नहीं पोंछना चाहिए और न किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त वस्त्र प्रयोग में लाना चाहिए, अपने सिर को तौलिया से ढक देना चाहिए और धुले हुए एवं सूखे दो वस्त्र धारण कर लेने चाहिए।
यस्त्र-धारण ब्रह्मचारी के वस्त्र धारण के विषय में पहले ही चर्चा हो चुकी है (भाग २, अध्याय ७)। यहाँ गृहस्थों के परिधान के विषय में संक्षिप्त चर्चा की जा रही है। वैदिक साहित्य में कताई-बुनाई की चर्चा आलंकारिक रूप में हुई है (ऋग्वेद १।११५।४, २।३।६, ५।२९।१५, १०।१०६।१)। ऋग्वेद (६।९।२-३) में 'तन्तु' एवं 'ओतु' के नाम आये हैं। परिधान में पहनने के लिए वासस् या वस्त्र शब्द प्रयुक्त हुए हैं। तैत्तिरीय संहिता (६।१।१।३) में आया है कि वैदिक यज्ञ के लिए दीक्षा लेते समय व्यक्ति को क्षौम (सन का बना हुआ) वस्त्र धारण करना पड़ता था। काठक संहिता (५१।१) के उल्लेख से पता चलता है कि कुछ कृत्यों में क्षौम वस्त्र शुल्क रूप में दिया जाता था। अथर्ववेद में
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