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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास मिताक्षरा, स्मृतिंचन्द्रिका (१, पृ० ११७-११९) एवं अन्य निबन्धों के मत से कुछ पक्षिया (यथा कौआ) तथा कुछ पशुओं (यथा-मुरगों या ग्रामीण सूअरों) को छू लेने पर स्नान करना चाहिए।' काम्य स्नान तथा अन्य प्रकार किसी तीर्थ को जाते समय या पुष्य नक्षत्र में चन्द्रोदय पर जो स्नान होता है, माघ एवं वैशाख मासों में पुण्य के लिए प्रातःकाल जो स्नान होता है, तथा इसी प्रकार के जो स्नान किसी इच्छा की पूर्ति के लिए किये जाते हैं उन्हें काम्य स्नान की संज्ञा मिली है (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १२२-१२३)। कूप-मन्दिर, बाटिका तथा अन्य जन-कल्याण के निर्माण कार्य के समय जो स्नान हाता है, उसे क्रियांग स्नान की संज्ञा मिली है। जब शरीर में तेल एवं आंवला लगाकर केवल शरीर को स्वच्छ करने की इच्छा से स्नान होता है, तो उसे मलापकर्षक या अभ्यंग-स्नान कहा जाता है। सूखे आंवलों के प्रयोग के विषय में मार्कण्डेयपुराण (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १२२), वामनपुराण (१४१४९) आदि में चर्चा हुई है। सप्तमी, नवमी एवं पर्व की तिथियों में आमलक-प्रयोग निषिद्ध माना गाया है। जब कोई किसी तीर्थ-स्थान पर यात्रा के फल-प्राप्त्यर्थ स्नान करता है तो उसे क्रिया-स्नान कहते हैं। बीमार व्यक्ति गर्म जल से स्नान कर सकता है। यदि वह उसे सह न सके तो उसका शरीर (सिर को छोड़कर) पोंछ देना चाहिए। इस स्नान को कापिल-स्नान कहते हैं। जब रोगी के लिए स्नान करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है और वह इस योग्य नहीं है कि स्नान कराया जा सके तो किसी दूसरे व्यक्ति को उसे छूकर स्नान करना चाहिए, और जब यह क्रिया दस बार सम्पादित हो जाती है तो रोगी व्यक्ति पवित्र समझा जाता है (यम, अपरार्क पृ० १३५, आह्निकप्रकाश, पृ० १९७)। जब रजस्वला स्त्री चौथे दिन ज्वर से पीड़ित हो जाय, तो किसी अन्य स्त्री को दस या बारह बार उसे बार-बार स्पर्श करके वस्त्रयुक्त स्नान करना चाहिए। अन्त में रजस्वला की धोती बदल दी जानी चाहिए। इस प्रकार वह पवित्र हो जाती है (उशना, स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १२१ में उद्धृत)। २१. (१) पुत्रजन्मनि यज्ञे च तथा चात्ययकर्मणि। राहोश्च दर्शने स्नानं प्रशस्तं नान्यदा निशि ॥ पराशर १२।२६। (२) पतितचण्डालसूतिकोदक्याशवस्पृष्टितत्स्पृष्ट्युपस्पर्शने सचलोदकोपस्पर्शनाच्छुध्येत्। शवानुगमने च । गौतम १४२८-२९: सपिण्डमरणे चैव पुत्रजन्मनि वै तया। स्नानं नैमित्तिक शस्तं प्रवदन्ति महर्षयः॥ लघ्वाश्वलायन २०१२४॥ (३) दुःस्वप्ने मैयुने वान्ते विरिक्ते भुरकर्मणि । चितियूपश्मशानास्थ्ना स्पर्श स्नानमाचरेत् ॥ पराशर (याज्ञवल्क्य ३.३० पर मिताक्षरा द्वारा उद्धृत); क्षुरकर्मणि वान्ते च स्त्रीसंभोगे च पुत्रक । स्नायीत चेलवान्प्राज्ञः कटभूमिमुपेत्य च ॥ मार्कण्डेयपुराण ३४१८२-८३; देखिए बौधायनधर्मसूत्र ११५।५२। (४) शैवान्पाशुपतान् स्पृष्ट्वा लोकायतिकनास्तिकान्। विकर्मस्थान द्विजान् शूग्रान्सवासा जलमाविशेत् ॥ ब्रह्मापुराण (याज्ञवल्क्य ३३० की टीका मिताक्षरा); स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ११८) ने पत्रिशम्मत को उद्धृत किया है--बौखान् पाशुपताजनान् लोकायतिककापिलान् । विक. . .स्पृष्ट्वा सवासा जलमाविशेत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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