SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १७ आह्निक एवं आचार धर्मशास्त्र में आह्निक एवं आचार पर पर्याप्त महत्त्वपूर्ण विस्तार पाया जाता है। हमने ब्रह्मचारियों के (प्रतिदिन के कर्म ) के विषय में पढ़ लिया है और वानप्रस्थों एवं यतियों के विषय में आगे पढ़ेंगे। इस अध्याय में हम मुख्यतः स्नातकों (भावी गृहस्थों) एवं गृहस्थों के कर्तव्यों अथवा धर्मों के विषय में पढ़ेंगे। सर्वप्रथम हम गृहस्थाश्रम की महत्ता के विषय में प्रकाश डालेंगे। गौतम एवं बौधायन ने गृहस्थाश्रम को ही प्रमुखता दी है। धर्मशास्त्र-ग्रन्थों ने गृहस्थाश्रम की महत्ता गायी है । गौतम ( ३1३) के अनुसार गृहस्थ सभी आश्रमों का आधार है, क्योंकि अन्य तीन आश्रम ( ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास) सन्तान नहीं उत्पन्न करते।" मनु (३।७७७८) ने भी यही बात और सुन्दर ढंग से कही है। एक स्थान पर मनु ( ६।८९-९०) ने यों कहा है- "जिस प्रकार बड़ी या छोटी नदियाँ अन्त में समुद्र से मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी आश्रमों के लोग गृहस्थ से ही आश्रय पाते हैं, वेद एवं स्मृतियों के मतों से अन्य तीन आश्रमों का आधार स्वरूप होने के कारण गृहस्थाश्रम सर्वोच्च आश्रम कहा जाता है ।" यही मनोभाव विष्णुधर्मसूत्र (५९/२७ - २९), वसिष्ठ (७।१७ तथा ८।१४-१६), बौधायनधर्मसूत्र (२।२1१), उद्योगपर्व (४०।२५ ), शान्तिपर्व ( २९६ । ३९) आदि में भी विभिन्न ढंगों से व्यक्त हुए हैं। शान्तिपर्व (२७०१६-७ ) में आया है — "जिस प्रकार सभी प्राणी माता के आश्रित होते हैं उसी प्रकार अन्य आश्रम गृहस्थों के आश्रय पर स्थित हैं।' इसी अध्याय (२७०।१०-११) में कपिल ने उन लोगों की भर्त्सना की है जो यह कहते हैं कि गृहस्थ को मोक्ष सम्भव नहीं है । शान्तिपर्व (१२।१२ ) के मत से यदि तराजू पर तोला जाय तो एक पलड़े पर गृहस्थाश्रम रहेगा, दूसरे पर अन्य तीनों आश्रम एक साथ (देखिए शान्तिपर्व ११।१५ २३।२ - ५, वनपर्व २ ) । रामायण ( अयोध्याकाण्ड १०६।२२ ) ने भी यही बात कही है। ब्राह्मण गृहस्थ कई मतों के अनुसार कई श्रेणियों में बँटे हुए हैं। बौधायनधर्मसूत्र ( ३।१।१), देवल ( याज्ञवल्क्य की १११२८ की व्याख्या में उद्धृत ) तथा अन्य ग्रन्थों ने गृहस्थ को दो श्रेणियों में बाँटा है, यथा (१) शालीन एवं (२) जिनमें दूसरा पहले से अपेक्षाकृत अच्छा है। शालीन शाला (गृह) में रहता है, उसके पास नौकर-चाकर, पशु यायावर, १. तेषां गृहस्थो योनिरप्रजनत्वादितरेषाम् । गौतम ( ३३ ) | २. नित्योकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्नवजीं । तौ स गच्छन्यिधियन्न हुन ब्राह्मणच्यवते ब्रह्मलोकात् ॥ वसिष्ठ (८११७) । ३. यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः । एवं गार्हस्थ्यमानित्य दर्शन तराश्रमाः ॥ शान्तिपर्ध २७०।६-६ ( वसिष्ठ ८११६, जहाँ अन्तिम पाद है—सर्वे जीवन्ति भिक्षुकाः) । ४. अथ शालीन यायावर-चक्रवर-धर्मकांक्षिणा नवभिम् तिभिर्वर्तमानानाम् । शालापयथाकालीमा वृत्या वरया यातीति यायावरत्वम् । अनुक्रमेण धरणाच्चक्रचरत्वम् । बौ० ६० स० (३१०१, ३-५) मे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy