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________________ ३५४ धर्मशास्त्र का इतिहास के पास नहीं जाना चाहिए, क्योंकि ये दूसरे की हैं। मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (१।२९०) की व्याख्या में लिखा है कि वेश्याएँ अप्सराओं से उत्पन्न पञ्चचूडा नामक विशिष्ट जाति हैं, यदि वे किसी की रखैल नहीं हैं तो यदि वे अपनी जाति या उच्च जाति के पुरुषों से संभोग करती हैं तो पाप की भागी या राजा से दण्डित नहीं होतीं, यदि वे अवरुद्धा नहीं हैं नो उनके पास जानेवाला व्यक्ति भी दण्डित नहीं होता। किन्तु उनके पास जानेवालों को पाप लगता है, क्योंकि स्मृतियों के अनुसार उन्हें पत्नीपरायण होना चाहिए (याज्ञवल्क्यं १९८१)। जो लोग वेश्यागमन करते थे उन्हें प्राजापत्य प्रायश्चित्त करना पड़ता था (अत्रि २७१)। नारद (वेतनस्यानपाकर्म, १८) ने लिखा है कि यदि शुल्क पा लेने पर वेश्या संभोग नहीं करती थी तो उस पर शुल्क का दूना दण्ड लगता था। और इसी प्रकार यदि संभोग कर लेने पर व्यक्ति शुल्क नहीं देता था तो उस पर शुल्क का दूना दण्ड लगता था। यही व्यवस्था याज्ञवल्क्य (२।२९२) एवं मत्स्यपुराण (२२७११४४-१४५) में भी पायी जाती है। मत्स्यपूराण ने वेश्याधर्म पर लिखा है (अध्याय ७०)। कामपत्र (१॥३॥ २०) ने गणिका को वह वेश्या कहा है जो ६४ कलाओं में पारंगत हो। अपरार्क (याज्ञवल्क्य २।१९८) ने नारद एवं भत्स्यपुराण में वेश्या के विषय में लिखते समय बहुत-से श्लोक उद्धृत किये हैं। समाज ने रखैल (अवरुद्धा स्त्री या वेश्या) को स्वीकृति दी थी अर्थात् उसे अंगीकार किया था। अतः स्मृतियों ने उसके भरण-पोषण की व्यवस्था भी की। व्यक्ति के जीते-जी रखैल को उसके विरुद्ध कोई अभियोग करने का अधिकार नहीं था। नारद (दायभाग, ५२) एवं कात्यायन के मत से यदि व्यक्ति की सम्पत्ति उत्तराधिकारी के अभाव में राजा के पास चली जाती थी, तो राजा को मृत व्यक्ति की रखैलों, दासों एवं उसके श्राद्ध के लिए उस सम्पत्ति से प्रबन्ध करना पड़ता था। मिताक्षरा ने यहाँ पर प्रयुक्त रखैल को अवरुद्धा 'रखैल' के रूप में माना है न कि भुजिष्या के रूप में ; यों तो मृत ब्राह्मण की रखैलो को सम्पत्ति से भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त था। रखैलों ली अनौरस सन्तानों के दायाधिकारों के विषय में हम आगे पढ़ेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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