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________________ ३५६ धर्मशास्त्र का इतिहास आदि होते हैं, वह स्थिर रूप से किसी ग्राम में रहता है, उसके पास अन्न एवं सम्पत्ति होती है, वह सांसारिक जीवन व्यतीत करता है। यायावर अत्युत्तम जीविका वाला होता है, वह खेत से ले जाते समय जो अन्न पृथिवी पर गिर जाता है उसे ही चुनता है और सम्पत्ति नहीं जोड़ता है, वह पुरोहिती करके जीविका नहीं चलाता है, वह न तो अध्यापन कार्य करके और न दान लेकर जीविका चलाता है। मनु ने ब्राह्मण गृहस्थों को चार श्रेणियों में विभाजित किया है, यथावह जिसके पास पर्याप्त अन्न है, जो एक घड़ा अन्न रखता है, जो अधिक-से-अधिक तीन दिनों के लिए इकट्ठा कर पाता है, जो आनेवाले कल की चिन्ता नहीं करता। देखिए, यही बात शान्तिपर्व (२४४११-४) एवं लघुविष्णु (२।१७) में। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य १११२८) ने 'शालीन' को चार श्रेणियों में बाँटा है-(१) जो पौरोहित्य करके, वेदाध्यापन करके, दान लेकर, कृषि, व्यवसाय एवं पशु-पालन करके अपना भरण-पोषण करता है, (२) जो उपर्युक्त छः वृत्तियों में केवल प्रथम तीन, अर्थात् पौरोहित्य करके, वेदाध्ययन करके, दान लेकर अपना काम चलाता है, (३) जो केवल पौरोहित्य कर्म तथा अध्यापन करके जीविका चलाता है तथा (४) जो केवल अध्यापन-कार्य करके जीविका चलाता है। मिताक्षरा की व्याख्यानुसार मनु (४९) ने भी चार श्रेणियाँ बतायी हैं। आपस्तम्बश्रौतसूत्र (५।३।२२) ने शालीन एवं यायावर का भेद बताया है। बौधायनगृह्यसूत्र (३।५।४) ने यायावर की ओर संकेत किया है। 'यायावर' शब्द तैत्तिरीय संहिता (५।२।११७) में भी आया है, किन्तु वहां उसका अर्थ कुछ दूसरा है।। वैखानसगृह्यसूत्र (८1५) में गृहस्थ चार भागों में बांटे गये हैं-(१) वार्ता वृत्ति वाला; जो कृषि, पशुपालन व्यवसाय आदि करता है, (२) शालीन; जो नियमों का पालन (याज्ञवल्क्य ३।३१३) करता है, पाकयज्ञ करता है, श्रौत अग्नि जलाता है,प्रति अर्ध मास पर दर्श एवं पूर्णमास यज्ञ करता है, चातुर्मास्य करता है,प्रत्येक छ: मास में पशु-यज्ञ करता है तथा प्रत्येक वर्ष में सोमयज्ञ करता है, (३) यायावर; जो छः कर्मों में लगा रहता है, यथा-हवि एवं सोम यज्ञ करना, यज्ञ में पौरोहित्य करना, वेद के अध्ययन-अध्यापन में लगे रहना, दान देना एवं लेना, श्रौत एवं स्मातं अग्नि की निरन्तर सेवा करना तथा आगत अतिथियों को भोजन देना, (४) घोराचारिक (जिसके नियमों का पालन अति कठिन है); जो नियम-व्रती है, यज्ञ करता है किन्तु दूसरों के यज्ञ में पुरोहिती (पौरोहित्य) नहीं करता, वेदाध्ययन करता है, किन्तु वेदाध्यापन नहीं करता, दान देता है लेता नहीं, खेतों में गिरे हुए अन्नों से अपना भरण-पोषण करता है, नारायण में लीन रहता है, प्रातः एवं सायं अग्निहोत्र करता है, मार्गशीर्ष एवं ज्येष्ठ में ऐसे व्रतादि करता है जो तलवार की धार जैसे तीक्ष्ण हैं तथा वन की ओषधि-वनस्पतियों से अग्नि की सेवा करता है। ये चारों प्रकार बृहत्पराशर (२९०) में भी पाये जाते हैं। बहुत-सी स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों में गृहस्थधर्म विस्तार के साथ वर्णित हैं (देखिए गौतम ५ एवं ९, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।१।१, २।४।९, वमिष्ठधर्मसूत्र ८।१-१७ एवं ११।१-४८, मनु, याज्ञवल्क्य १।९६-१२७, विष्णुधर्मसूत्र ६०-७०, दक्ष २, व्यास ३, मार्कण्डेयपुराण २९-३० एवं ३४, नृसिंहपुराण ५८।७५-१०६, कूर्मपुराण उत्तरार्ध, अध्याय १५-१६, लघु-हारीत ४, पृ० १८३, द्रोणपर्व ८२, वनपर्व २।५३-६३, आश्वमेधिक ४५।१६-२५, अनुशासन पर्व ९७ । निबन्धों में इस विषय में स्मृतिचन्द्रिका (१, ८८-२३२), स्मृत्यर्थसार (पृ० १८-४८), मदनपारिजात 'शालीन' को व्युत्पत्ति शाला' (घर ) से की है और 'यायावर' को 'या' (जाना) एवं वर (श्रेष्ठतम) से। पाणिनि (५।२।२० जैसा कि महाभाष्य ने अर्थ दिया है) के अनुसार 'शालीन', 'अघृष्ट' (जो धृष्टता न करे) के अर्थ में 'शाला' से निकला हुआ है। सम्भवतः पाणिनि के समय तक गृहस्थ 'शालीन' एवं 'यायावर' भागों में नहीं बँटा था। बौधायन ने गृहस्थ की तीसरी कोटि दी है चकचर, जो अन्यत्र नहीं पाया जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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