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________________ ३५१ धर्मशास्त्र का इतिहास जो रजस्वला हों, वे पति की चिता पर नहीं चढ़तीं" (बृहन्नारदीय पुराण)। बृहस्पति ने भी ऐसा ही कहा है। उस पत्नी को, जो पति की मृत्यु के समय रजस्वला रहती थी, स्नान करने के चौथे दिन जल जाने की अनुमति थी। ___ आपस्तम्ब (पद्य) ने उस नारी के लिए, जो पति की चिता पर जल जाने की प्रतिज्ञा करके लौट आती है, प्राजापत्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। राजतरंगिणी (६।१९६) ने एक ऐसी रानी का चित्रण किया है। शुद्धितत्त्व ने सती होने की विधि पर इस प्रकार प्रकाश डाला है। विधवा नारी स्नान करके दो श्वेत वस्त्र धारण करती है, अपने हाथों में कुश लेती है. पूर्व या उत्तर की ओर मुख करती है, आचमन करती है ; जब ब्राह्मण कहता है "ओम् तत्सत्", वह नारायण को स्मरण करती है तथा मास, पक्ष एवं तिथि का संकेत करती है, तब संकल्प करती है। इसके उपरान्त वह आठों दिक्पालों का आवाहन करती है, सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि का भी आवाहन करती है कि वे लोग चिता पर जल जाने की क्रिया के साक्षी बनें। तब वह अग्नि के चारों ओर तीन बार जाती है (तीन बार अग्नि प्रदक्षिणा करती है), तवं ब्राह्मण वैदिक मन्त्र का पाठ (ऋग्वेद १०११८१७) तथा एक पुराण के मन्त्र (ये अच्छी और परम पवित्र नारियां, जो पतिपरायण हैं, अपने पति के शवों के साथ अग्नि में प्रवेश करें) का पाठ करता है ; तब स्त्री नमो नमः" कहकर जलती हुई पिता पर चढ़ जाती है। कमलाकर मट्ट द्वारा प्रणीत निर्णयसिन्धु (कमलाकर भट्ट की माता मी सती हो गयी थी, और इन्होंने अपनी माता की स्मृति में बड़े मर्मस्पर्शी वचन कहे हैं) में उपर्युक्त विधि कुछ भिन्नसी है और उसका धर्मसिन्धु ने भी अनुसरण किया है। यात्रियों एवं अन्य लोगों के लेखों से पता चलता है कि सती प्रथा बन्द होने के पूर्व की शताब्दियों में देश के अन्य भागों की अपेक्षा बंगाल की विधवाएँ अधिक संख्या में जला करती थीं। यदि यह बात थी तो इसके लिए उपयुक्त कारण मी विद्यमान थे। बंगाल को छोड़कर अन्य प्रान्तों के संयुक्त परिवारों में विधवा को भरण-पोषण के अतिरिक्त सम्पत्ति में कोई अन्य अधिकार प्राप्त नहीं थे। बंगाल में, जहाँ पर 'दायभाग' का प्रचलन था, पुत्रहीन विधवा को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में वही अधिकार था जो उसके पति का होता था। ऐसी स्थिति में परिवार के अन्य लोग पति की मृत्यु पर पत्नी की पतिमक्ति को पर्याप्त मात्रा में उत्तेजित कर देते थे, जिससे कि वह पति की चिता में भस्म हो जाय । यह है मानव की सम्पत्ति-मोह-भावना की पराकाष्ठा!! विधवा का इस प्रकार का अधिकार सर्वप्रथम दायभाग के लेखक जीमूतवाहन ने ही नहीं घोषित किया था। उन्होंने स्वयं लिखा है कि उन्होंने जितेन्द्रिय का अनुसरण किया है। क्रमशः सती प्रथा की भावना भारतीय समाज-मन से क्षीणतर होती चली गयी और जब लार्ड विलियम बेंटिक ने सन् १८२९ ई० में इसे अवैध घोषित कर दिया तो जनता ने इसे स्वीकार ही कर लिया, कुछ स्वार्थी जनों ने ही गलत धार्मिकता का मोह प्रदर्शित कर प्रिवी कौंसिल में इस कानून के विरोध में आवेदन-पत्र दिया था। इसके पीछे कोई गम्भीर धार्मिक भावना नहीं थी कि लोग इसे आवश्यक समझते। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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