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________________ ३४६ धर्मशास्त्र का इतिहास से दूर न कर दिया जाय। अन्य उक्तियों की चर्चा आगे होगी। इतना स्पष्ट है कि अर्थववेद के मत में विधवा का पुन विवाह निषिद्ध एवं वजित नहीं माना जाता था। तैत्तिरीय संहिता (३।२।४।४) में 'दैधिषव्य' (विधवापुत्र) शब्द आया है। गृह्यसूत्र विधवा-पुनर्विवाह के विषय में मौन हैं। लगता है, तब तक वह विवाह वर्जित सा हो चुका था, केवल यत्र-तत्र ऐसी घटनाएं घट जाया करती थीं। ब्राह्मणों एवं उनके समान अन्य जातियों में सम्मान के विचार से विधवा-विवाह शताब्दियों से वजित रहा है। प्राचीनतम ऐतिहासिक उदाहरणों में रामगुप्त की रानी ध्रुवदेवी का (पति की मृत्यु के उपरान्त) अपने देवर चन्द्रगुप्त से विवाह अति प्रसिद्ध रहा है। शूद्रों एवं अन्य नीची जातियों में विधवापुनर्विवाह सदा से परम्परागत एवं नियमानुमोदित रहा है, यद्यपि उनमें भी कुमारी कन्या के विवाह से यह विवाह अपेक्षाकृत अनुत्तम माना जाता रहा है। कुछ जातियों के ऐसे विवाह पंचायत से तय होते हैं। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद की कुछ उक्तियों से कई विवाद खड़े हो गये हैं, यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि नियोग, विधवापुनर्विवाह या विधवा-अग्निप्रवेश में किस की ओर उनका संकेत है। ऋग्वेद की अन्त्येष्टि क्रिया-सम्बन्धी ये दो उक्तियां हैं (ऋग्वेद १०।१८।७-८)- 'ये स्त्रियाँ, जो विधवा नहीं हैं, जिनके अच्छे पति हैं, अंजन के रूप में प्रयुक्त घृत के साथ बैठ जायें, वे पत्नियाँ, जो अश्रुविहीन हैं, रोगविहीन हैं, अच्छे परिधान धारण किये हुए हैं, यहाँ सम्मुख (सबसे पहले) बैठ जायें। हे स्त्री, तुम जीवित लोक की ओर उठो, तुम इस मृत (पति) के पास लेट जाओ, आओ, तुम्हारा पत्नीत्व उस पति से जिसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और तुम्हें प्यार किया, सफल हो गया।" यह विचित्र बात है कि सायण ने उपर्युक्त उक्ति की अन्तिम अर्धचं (अर्धाली) में मृत पति के भाई द्वारा उसकी पत्नी को विवाह के लिए निमन्त्रण देना समझा है। किन्तु सायण का यह अर्थ खींचातानी मात्र है और इससे 'हस्तग्राभस्य', 'पत्युः' एवं 'बभूथ' के वास्तविक अर्थ पर प्रकाश नहीं पड़ता। विवाहविच्छेद (तलाक) वैदिक साहित्य में कुछ ऐसी उक्तियाँ हैं, जिन्हें हम विधवा-पुनर्विवाह के अर्थ में ले सकते हैं। 'पुनर्भू' शब्द से पर्याप्त प्रकाश मिलता है। किन्तु विवाह-विच्छेद या तलाक के विषय में वहाँ कुछ भी प्राप्य नहीं है और पश्चात्कालीन वैदिक साहित्य में भी हमें कुछ विशेष प्रकाश नहीं मिल पाता। धर्मशास्त्रकारों का सिद्धान्त है कि होम एवं सप्तपदी के उपरान्त विवाह का विच्छेद नहीं हो सकता। मनु (९।१०१) ने लिखा है-"पति-पत्नी की पारस्परिक निष्ठा आमरण चलती जाय, यही पति एवं पत्नी का परम धर्म है।" मनु ने एक स्थान (९।४६) पर और कहा है--"न तो विक्रय से और न भाग जाने से पत्नी का पति से छुटकारा हो सकता है। हम समझते हैं यह नियम पुरातन काल में सृष्टिकर्ता ने बनाया है।" धर्मशास्त्रकारों का कथन है कि विवाह एक संस्कार है, पत्नीत्व की स्थिति का उद्भव उसी संस्कार से होता है, यदि पति या पत्नी पतित हो जाय, तो संस्कार की परिसमाप्ति नहीं हो जाती, यदि पत्नी व्यभिचारिणी हो जाय तो भी वह पत्नी है, और प्रायश्चित्त कर लेने के उपरान्त उसे विवाह का संस्कार पुनः नहीं करना पड़ता (विश्वरूप, याज्ञवल्क्य ३।२५३-२५४ पर)। हमने देख लिया है कि पुरुष एक पत्नी के रहते दूसरा या कई विवाह कर सकता है, और कुछ स्थितियों में अपनी स्त्री को छोड़ सकता है। किन्तु यह विवाह-विच्छेद या तलाक नहीं है, यहाँ अब भी विवाह का बन्धन अपने स्थान पर दृढ ही है। हमने यह देख लिया है कि नारद, पराशर एवं अन्य धर्मशास्त्रकारों की अनुमति से एक स्त्री कुछ स्थितियों में, यथा पति के मृत हो जाने, गुम हो जाने आदि से, पुनर्विवाह कर सकर्द ग्री, किन्तु निबन्धों एवं टीकाकारों ने इसे पूर्व युग की बात कहकर टाल दिया है। अतः विवाह-विच्छेद की बात धर्मशास्त्रों एवं हिन्दू समाज में लगभग दो सहस्र वर्षों से अनसूनी-सी रही है, हाँ, परम्परा के अनुसार यह बात नीची जातियों में प्रचलित रही है। यदि पति उसे उसकी त्रुटियों के कारण छोड़ दे तो भी पत्नी भरण-पोषण की अधिकारी मानी जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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