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विवाह-विच्छेद
रही है। अतः इस प्रकार का त्याग विवाह-विच्छेद का द्योतक नहीं रहा है। पश्चात्कालीन स्मृतियों एवं निबन्धों में नारद को छोड़कर कोई यह बात सोच ही नहीं सकता था कि पत्नी अपने पति का त्याग कर सकती है। नारद ने अवश्य कहा है कि नपुंसक, संन्यासी एवं जातिच्युत पति को पत्नी छोड़ सकती है। याज्ञवल्क्य (११७७) की टीका में मिताक्षरा का कहना है कि जब पति पतित (जातिच्युत) हो पत्नी उसके नियन्त्रण के बाहर रहती है, किन्तु उसे तब तक जोहते रहना चाहिए जब तक कि वह प्रायश्चित्त द्वारा पुनः पवित्र न हो जाय एवं जाति में न ले लिया जाय; और इसके उपरान्त वह पुनः उसके नियन्त्रण में चली जाती है। बड़े से बड़ा पाप प्रायश्चित्त से कट जाता है, अतः पत्नी अपने पति को मदा के लिए नहीं छोड़ सकती (मनु १०।८९, ९२, १०१, १०५-१९६)। केवल त्याग या वर्षों तक बाहर रहने या व्यभिचार से हिन्दू विवाह की इतिश्री नहीं हो जाती।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र (३।३) में कुछ ऐसे मनोरंजक नियम हैं जो विवाह-विच्छेद पर कुछ प्रकाश डालते हैं"यदि पति नहीं चाहता तो पत्नी को छुटकारा नहीं मिल सकता, इसी प्रकार यदि पत्नी नहीं चाहती तो पति को छुटकारा नहीं प्राप्त हो सकता; किन्तु यदि दोनों में पारस्परिक विद्वेष है तो छुटकारा सम्भव है। यदि पति पत्नी से डरकर उससे पृथक् होना चाहता है तो उसे (पत्नी को) विवाह के समय जो कुछ प्राप्त हुआ था उसे दे देने से पति को छुटकारा मिल सकता है। यदि पत्नी पति से डरकर उससे पृथक् होना चाहती है तो पति पत्नी के विवाह के समय जो कुछ प्राप्त हुआ था, उसे नहीं लौटायेगा । अंगीकृत रूप में (धर्म्य) विवाह का विच्छेद नहीं होता।" कौटिल्य (३१२) ने लिखा है कि विवाह के ब्राह्म, प्राजापत्य, आर्ष एवं दैव नामक चार प्रकार धर्म्य हैं, क्योंकि ये पिता के प्रमाण द्वारा स्वीकृत अथवा किये जाते हैं। अ" इन चारों प्रकार के विवाहों का विच्छेद, कौटिल्य के मत से, सम्भव नहीं है। किन्तु यदि विवाह गान्धर्व, आसुर एवं राक्षस प्रकार के रहे हैं, तो विद्वेष उत्पन्न हो जाने पर एक-दूसरे की सम्मति से उनमे विच्छेद हो सकता है। किन्तु कौटिल्य के कथन से इतना स्पष्ट है कि यदि एक (पति या पत्नी) विच्छेद नहीं चाहता तो दूसरे को छुटकारा नहीं प्राप्त हो सकता, किन्तु यदि शरीर पर किसी प्रकार का डर या खतरा उत्पन्न हो जाय तो अपवाद रूप से दोनों पक्षों का छुटकारा सम्भव है।
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