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________________ पुनर्विवाह अवधियों के उपरान्त पत्नी को क्या करना चाहिए । वसिष्ठ (१७।७५-७६) ने बताया है कि यदि पति बाहर चला गया हो तो पाँच वर्षो तक बाट देखकर उसे पति के पास चला जाना चाहिए। यह तो ठीक है, किन्तु यदि पति का कोई पता-ठिकाना न ज्ञात हो तब उस बेचारी पत्नी को क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में वसिष्ठ मौन हैं। विश्वरूप ( याज्ञवल्क्य १।६९ ) ने लिखा है कि विदेश गये हुए पति को नियमानुसार नियत समय तक जोहकर नियोग को नहीं अपनाते हुए उसे पति के पास चला जाना चाहिए। कौटिल्य ( ३१४ ) ने मनोहर नियम दिये हैं- “विदेश गये हुए, या संन्यासी, या मरे हुए पति को पत्नी को सात ऋतुमास तक जोकर, तथा यदि उसे एक बच्चा हो, तो साल भर तक जोकर अपने पति के सगे भाई से विवाह कर लेना चाहिए। यदि कई भाई हों तो उसे अपने पति की सन्निकट अवस्था वाले भाई से, जो सदाचारी हो, उसका भरण-पोषण कर सके या यह जो लोटा हो या अविवाहित हो, उससे विवाह करना चाहिए। यदि कोई भाई न हो तो वह अपने पति के सपिण्ड से या उसी जाति के किसी से भी विवाह कर सकती है ।" दमयन्ती की गाथा यह स्पष्ट करती है कि जन का वर्षों पता न चले तो पत्नी पुनविवाह सम्पादित कर सकती है ( वनपर्व ७०1२४ ) । एक प्रश्न उठता है जब विषय विवाह करे तो उसका गोत्र क्या होगा ? ( उसके पिता का अथवा प्रथम पति का ? ) इस विषय में प्राचीन स्मृतियों एवं टीकाओं में कोई संकेत नहीं मिलता। विश्वरूप ( याज्ञवल्क्य १।६३ ) कन्याप्रद' की व्याख्या में लिखते हैं कि कुछ लोगों के मत से पिता कन्या का यदि वह अक्षतयोनि ने हो तब मी, दान करता है। इससे स्पष्ट होता है कि विधवा के पुनर्विवाह में पिता का गोत्र ही देखा जाता है। यही मत विद्यासागर का, जिसका डा० बनर्जी ने अनुसरण किया है, भी है। विधवा के पुनर्विवाह के विषय में अथर्ववेद की कुछ उक्तियां भी वीय है। अथर्ववेद (५११७१८-९) में आया है --"यदि कोई स्त्री पहले दस अब्राह्मण पदि करें, किन्तु अन्त में यदि वह ब्राह्मण से विवाह करे तो वह उ वास्तविक पति है । केवल ब्राह्मण ही ( वास्तविक) पति है, न कि क्षत्रिय या वैश्य; यह बात सूर्य पंच मानवों (पंच वर्गों या पंच प्रकार के मनुष्य गणों में) में घोषित करता चलता है।" इसका तात्पर्य यह है कि यदि स्त्री को प्रथम क्षत्रिय या वैश्य पति हो, तो यदि वह उसकी मृत्यु के उपरान्त किसी ब्राह्मण से विवाह करती है तो वही उसका वास्तविक पति कहा जायगा । अथर्ववेद (९।५।२७-२८ ) में पुनः आया है---"यदि कोई स्त्री एक पति से विवाह करने के उपरान्त दूसरे से विवाहित होती है, यदि वे (दोनों) एक बकरी और भात की पाँन थालियाँ देते हैं तो ये दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं होंगे। दूसरा पति अपनी पुनववाहित पत्नी के साथ वही लोक प्राप्त करता है, यदि वह पाँच भात की थी के साथ एक बकरी देता है, तथा दक्षिणा ज्योति: ( शुल्क का दीपप्रकाश) प्रदान करता है।" यहाँ पर भी पुनर्भू शब्द प्रयुक्त हुआ है। हो सकता है कि यहाँ मनोदत्ता कन्या के हो पुर्नविवाह की चर्चा हो । चाहे जो हो, यह स्पष्ट लक्षित होता है कि इस प्रकार का विवाह तब तक अच्छा नहीं गिना जाता था जब तक कि कन्या का पाप या लोकापवाद यज्ञ ३४५ ५. डा० बनर्जी, 'मॅरेज एण्ड स्त्रीधन' (५वाँ संस्करण, पृ० ३०९ ) । ६. कन्याप्रव इति वचनावक्षताया एव न यमिक दानम् । पिता त्वकन्यामपि दद्यादिति केचित् । विश्वरूप ( याज्ञवल्क्य १।६३) । ७. उस यत्पतयो दश स्त्रियाः पूर्वे अब्राह्मणाः । ब्रह्मा वेद्धस्तमग्रहीत्स एवं पतिरेकधा ॥ ब्रह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्यः । तत्सूर्यः प्रनुवन्नेति पञ्चभ्यो मानवेभ्यः ।। अथर्ववेद ५।१७।८-९ । 'उत' शब्द का अर्थ निरुक्त ने 'अपि' लगाया है, विशेषतः जब यह पाद या श्लोक के आरम्भ में आता है। धर्म ० ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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