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धर्मशाला इतिहास मापस्तम्बधर्मसूत्र (२०६।१३।३-४) ने पुनर्विवाह की भर्त्सना की है-"यदि कोई पुरुष उस स्त्री से, जिसका कोई पति रह चुका हो, या जिसका विवाह-संस्कार न हुआ हो, या जो दूसरे वर्ण की हो, सम्भोग करता है तो पाप का मागी होता है, और उसका पुत्र की पाप का भागी कहा जायगा।" हरदत्त ने मनु (३६१७४) की व्याख्या में लिखा है कि दूसरे की पत्नी से, जिसका पति जीवित हो, उत्पन्न किया हुआ पुत्र 'कुण' तथा उससे, जिसका पशि मर गया हो, उत्पत्र किया हुआ पुत्र 'गोलक' कहलाता है। मनु ( ४११६२) ने विधवा के पुनर्विवाह का विरोध किया है-"सदाचारी नारियों के लिए दूसरे पति की घोषणा कहीं नहीं हुई है"; यही बात विभिन्न दंगों में उन्होंने कई बार कही है।' ब्रह्मपुराण ने कलियुग में विधवा-विवाह निषिद्ध माना है। संस्कारप्रकाश ने कात्यायन का मत प्रकाशित किया है कि उन्होंने सगोत्र में विवाहित विषवा के पुनर्विवाह की बात चलायी है, किन्तु अब यह मत कलियुग में वमान्य है। यही बात सभी निबन्धों में पायी जाती है। मनु (९।१७६) ने उस कन्या के पुनपिलाह के संस्कार की बाल उठायी है, जिसका अभी समागम न हुआ हो, या जो अपनी युवावस्था का पति छोड़कर अन्य के साथ रहकर पुनः अपने वास्तविक पति के यहाँ आ गयी हो। यहाँ मनु ने अपने समय की रूढिगत परम्परा की ओर संकेत मात्र किया है, वास्तव में जैसा कि पहले ही व्यक्त किए जा चुका है, वे विषवा के पुनर्विवाह के घोर विरोधी थे। स्पष्ट है, मनु ने पुनर्विवाह में मन्त्रों के प्रयोग का विरोध नहीं किया है, प्रत्युत मन्त्रों से अभिषिक्त पुनर्विवाह को अधर्म ही मला है। महाभारत में आया है कि दीर्घतमा ने पुनर्विवाह एवं नियोग वर्जित कर दिया है (आदिपर्व १०४। ३४-३७)। मनु (९।१७२-१७३) ने स्वयं गर्भवती कन्या के संस्कार की बात चलायी है। बौधायनधर्मसूत्र (४।१।१८), वसिष्ठधर्मसूत्र (१७१७४), याज्ञवल्क्य (१११६७) ने पुनर्विवाह के संस्कार (पौनर्भव संस्कार) की बात कही (३।१५५) एवं याज्ञवल्क्य (१।२२२) ने श्राद्ध में न बुलाये जाने वाले ब्राह्मणों में पानव (पुनर्मू के पुत्र) को भी विना है। अपराक (०९७) द्वारा उद्धत ब्रह्मपुराण में यह आया है कि बालविधवा,या जो बलवश त्याग दी गयी हो, या किसी के द्वारा अपहत हो चुकी हो, उसके विवाह का नया संस्कार हो सकता है।
बहुत-सी स्मृतियों ने उस पत्नी के लिए, जिसका पति बहुत वर्षों के लिए बाहर गया हुआ हो, कुछ नियम बनाये हैं। नारद (स्त्रीपुंस, ९८-१०१) ने ये आदेश दिये हैं-"यदि पति विदेश गया हो तो ब्राह्मण पत्नी को आठ वर्षों तक जोहना चाहिए, किन्तु केवल चार ही वर्षों तक जोहना चाहिए जब कि उसे बच्चा न उत्पन्न हुआ हो, उसके उपरान्त (८ या ४ वर्षों के उपरान्त) वह दूसरा विवाह कर सकती है (नारद ने क्षत्रिय और वैश्य पत्नियों के लिए कम वर्ष निर्धारित किये हैं); यदि पति जीवित है तो दूने वर्षों तक जोहना चाहिए; प्रजापति का मत यह है कि यदि पति का कोई पता न हो तो दूसरा पति करने में कोई पाप नहीं है।" मनु (९७६) का कहना है-"यदि पुरुष धार्मिक कर्तव्य को लेकर विदेश गया हो तो पत्नी को आठ वर्षों तक, यदि ज्ञान या यश की प्राप्ति के लिए गया हो तो छः वर्षों तक, यदि प्रेम के वश होकर (दूसरी स्त्री के फेर में) गया हो तो तीन वर्षों तक जोहना चाहिए।" मनु ने यह नहीं बताया कि उपर्युक्त
३. न द्वितीयश्च साध्वीनां क्वचिद् भापविश्यते। मनु ५११६२; न विगाहविधायुक्तं विधवावेवनं पुनः। मनु ९१६५; सकृत्कन्या प्रदीयते। मनु ९।४७; पाणिप्रहणिका मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः। मनु ८।२२६ । देखिए आश्वलायनगृहामूत्र १७११३; आप तम्बमन्त्रपाठ १।५७-'अर्यमणं नु देवं कन्या अग्निमयक्षत' आदि, जहाँ केवल 'कन्या' न हुआ है।
४. यदि कारजालविधवा बसात्यक्ताथवा क्वचित् । तवा भूबस्तु संस्कार्या गृहीता येन केनचित् ॥ ब्रह्मपुराण (अपराकं पृ० ९७ में उपत)।
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