________________
अध्याय १४ विधवा-विवाह, विवाह विच्छेद (तलाक)
___ विधवा का पुनर्विवाह 'पुनर्मू' शब्द उस विधवा के लिए प्रयुक्त होता है, जिसने पुनर्विवाह किया हो। नारद (स्त्रीपुस, ४५) के अनुसार सात प्रकार की पलियां होती हैं जो पहले किसी व्यक्ति से विवाहित (परपूर्वा) हो चुकी रहती हैं; उनमें पुन' के तीन प्रकार होते हैं और स्वैरिणी के चार प्रकार होते हैं। तीन पुनर्मू हैं- (१) वह, जिसका विवाह में पाणिग्रहण हो चुका हो किन्तु समागम न हुआ हो; इसके विषय में विवाह एक बार पुनः होता है; (२) वह स्त्री, जो पहले अपने पति के साथ रहकर उसे छोड़ दे और अन्य मर्ता कर ले किन्तु पुनः अपने मौलिक पति के यहाँ चली आये; (३) वह स्त्री, जो अपने पति की मृत्यु के उपरान्त उसके सम्बन्धियों द्वारा, देवर के न रहने पर, किसी सपिण्ड को या उसी जाति वाले किसी को दे दी जाय (यह नियोग है, जिसमें कोई धागि
को देवी जाय (यह नियोग है. जिसमें कोई धार्मिक कृत्य नहीं किया जाता है। चार स्वरिणीये हैं-(१) वह स्त्री, जो पुत्रहीन या पुत्रवती होने पर अपने पति की जीवितावस्था में प्रेमवश किसी अन्य पुरुष के यहाँ चली जाय; (२) वह स्त्री, जो अपने मृत पति के भाइयों तथा अन्य लोगों को न चाहकर किसी अन्य के प्रेम में फंस आय; (३) वह स्त्री, जो विदेश से आकर या क्रीत होकर भूख-प्यास से व्याकुल होकर किसी व्यक्ति की शरण में आकर कह दे 'मैं तुम्हारी हूँ'; (४) वह स्त्री, जो किसी अजनवी को देशाचार के कारण अपने गुरुजनों द्वारा सुपुर्द कर दी जाय, किन्तु स्वैरिणी हो जाने का अपराध करे (जब कि उनके द्वारा या उस (स्त्री) के द्वारा नियोग के विषय में स्मृतियों के नियम न पालित हों)। नारद के अनुसार उपर्युक्त दोनों प्रकारों में सभी क्रमानुसार निकृष्ट कहे जाते हैं। याज्ञवल्क्य (१॥६७) इतने बड़े विस्तार में नहीं पड़ते, वे पुनर्मू को दो भागों में बाँटते हैं; (१) वह, जिसका पति से अमी समागम न आ हो, तथा (२) वह, जो समागम कर चुकी हो; इन दोनों का विवाह पुनः होता है (पुनर्मू वह है, जो पुनः संस्कृता हो)। याज्ञवल्क्य ने स्वैरिणी उसको माना है जो अपने विवाहित पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के प्रेम में फंसकर उसी के साथ रहती है। द्वितीय पति या द्वितीय विवाह से उत्पन्न पुत्र को "पौनर्भव" (क्रम से पति या पुत्र, यया पोनर्मव-पति या पोनर्भव-पुत्र) की संज्ञा दी जाती है (देखिए संस्कारप्रकाश, पृ०७४०-७४१)। कश्यप के अनुसार पुनर्मू के सात प्रकार हैं-(१) वह कन्या, जो विवाह के लिए प्रतिश्रुत हो चुकी हो, (२) वह, जो मन से दी जा चुकी हो, (३) वह, जिसकी कलाई में वर द्वारा कंगन बाँध दिया गया हो, (४) वह, जिसका जल के साथ (पिता द्वारा) दान हो चुका हो, (५) वह, जिसका वर द्वारा पाणिग्रहण हो चुका हो, (६) वह, जिसने अग्निप्रदक्षिणा कर ली हो तथा (७) जिसे विवाहोपरान्त बच्चा हो चुका हो।' इनमें प्रथम पांच प्रकारों से हमें यह समझना चाहिए कि वर या तो मर गया या उसने आगे की वैवाहिक क्रिया नहीं की और लौट गया। इन लड़कियों को भी, इनका
१. वाचा पत्ता मनोरता कृतकौतुकमंगला। उदकस्पशिता या च या च पाणिगृहीतिका ॥ अग्नि परिगता पाच पुनः प्रसवा च या। इत्येताः कश्यपेनोक्ता वहन्ति कुलमग्निवत् ॥ कश्यप (स्मृतिचन्द्रिका, १, ७५ में उपत)।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org