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नियोग
मत से नियोग की उपयोगिता ही निरर्थक सिद्ध हो जाती है। निरुक्त (३।१-३) ने इस मत का समर्थन किया है और ऋग्वेद (७।४।७-८) को उदाहरण माना है । गौतम (१८१९) एवं मनु (२।१८१) ने भी यही बात मानी है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।५) का कहना है कि एक ब्राह्मण-ग्रन्थ के अनुसार पुत्र जनक का ही होता है। (२) द्वितीय मत यह था कि यदि विधवा के गुरुजनों एवं नियुक्त पुरुष में यह तय पाया हो कि पुत्र-पति का होगा तो पुत्र पति का ही माना जायगा (देखिए गौतम १८।१०-११, वसिष्ठ १७-८ एवं आदिपर्व १०४।६)।(३) तृतीय मत यह था कि पुत्र दोनों का अर्थात् जनक एवं विधवा के स्वामी का होता है । यह मत नारद (स्त्रीपुंस,५८), याज्ञवल्क्य (२।१२७), मनु (९।५३) एवं गौतम (१८।१३) का है।
नियोग की प्रथा कलियुग में वर्जित मानी गयी है (बृहस्पति)। बहुत-से ग्रन्थकारों ने इसे कलियुग में निषिद्ध कर्मों में गिना है (देखिए याज्ञवल्क्य २।११७ की व्याख्या में मिताक्षरा एवं ब्रह्मपुराण, अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृ० ९७)।
___ पति के भाई से विधवा का विवाह तथा उससे पुत्रोत्पत्ति एक अति विस्तृत प्रथा रही है (देखिए वेस्टरमार्क की पुस्तक 'हिस्ट्री आव ह्यूमन मैरेज, १९२१, जिल्द ३, पृ० २०६-२२०)। ऋग्वेद (१०४०१२) में हम पढ़ते हैं"तुम्हें, हे आश्विनौ, यज्ञ करनेवाला अपने घर में वैसे ही पुकार रहा है, जिस प्रकार विधवा अपने देवर को पुकारती है या युवती अपने प्रेमी का आह्वान करती है।" किन्तु इससे यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि यह उक्ति विधवा तथा उसके देवर के विवाह की ओर या नियोग की ओर संकेत करती है। निरुक्त (३।१५) की कुछ प्रतियों में ऋग्वेद की इस ऋचा में 'देवर' का अर्थ "द्वितीय वर" लगाया गया है। मेघातिथि (मनु ९।६६) ने इसकी व्याख्या नियोग के अर्थ में की है। सूत्रों एवं स्मृतियों के अनुसार नियोग एवं विवाह में अन्तर है। बहुत से प्राचीन समाजों में स्त्रियां सम्पत्ति के समान वसीयत के रूप में प्राप्त होती थीं। प्राचीन काल में बड़े भाई की मृत्यु पर छोटा भाई उसकी सम्पत्ति एवं विधवा पर अधिकार कर लेता था। किन्तु ऋग्वेद का काल इस प्रथा के बहुत ऊपर उठ चुका था। मैक्लेन्नान के अनुसार नियोग की प्रथा के मूल में बहु-मर्तृकता पायी जाती है। किन्तु वेस्टरमार्क ने इस मत का खण्डन किया है, जो ठीक ही है। जब सूत्रों में नियोग की प्रथा मान्य थी, तब बहु-भर्तकता या तो विस्मृत हो चुकी थी या वर्जित थी। जॉली का यह कयन कि गौण पुत्रों के मूल में आर्थिक कारण थे, निराधार है। नियोग की प्रथा प्राचीन थी और उसके कई कारण थे, किन्तु वे सभी अज्ञात एवं रहस्यात्मक हैं, केवल एक ही सत्यता स्पष्ट है-वैदिक काल से ही पुत्रोत्पत्ति पर बहुत ध्यान दिया गया है। वसिष्ठधर्मसूत्र (१७।१-६) ने यह मत माना है और वैदिक उक्तियों के आधार पर पितृऋण से. मुक्त होने के लिए पुत्रोत्पत्ति की एवं स्वर्गिक लोकों की प्राप्ति की महत्ता प्रकट की है। किसी भी ऋषि ने इसके पीछे आर्थिक कारण नहीं रखा है। यदि आर्थिक कारणों से गौण पुत्र प्राप्त किये जायं तो एक व्यक्ति बहुत-से पुत्र प्राप्त कर लेगा। किन्तु धर्मशास्त्रकारों ने इसकी आज्ञा नहीं दी है। जिसे औरस पुत्र होता था वह क्षेत्रज अथवा दत्तक पुत्र नहीं प्राप्त कर सकता था। अतः स्पष्ट है कि नियोग के पीछे आर्थिक कारण नहीं थे। विन्तरनित्श (जे० आर० ए० एस०, १८९७, पृ० ७५८) ने नियोग के कारणों में दरिद्रता, स्त्रियों का अभाव एवं संयुक्त परिवार माना है। किन्तु इसके विषय में कि ऐतिहासिक काल में भारत में स्त्रियों का अभाव था, कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता। हाँ, युद्धों के कारण. पुरुषों का अभाव अवश्य रहा होगा। और न अन्य कारण, यथा दारिद्रय तथा संयुक्त परिवार, ही विश्लेषण से ठहर पाते हैं। यही कहना उत्तम जंचता है कि नियोग अति अतीत प्राचीन प्रथा का अवशेष मात्र था जो क्रमशः विलीन होता हुआ ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में भारत में सदा के लिए वजित हो गया।
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