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________________ ३४० धर्मशास्त्र का इतिहास चुकी थी किन्तु मावी पति मर गया, ऐसी स्थिति में मृत पति के भाई को उस कन्या से विवाह करके केवल ऋतुकाल में एक बार सम्भोग तब तक करना पड़ता था जब तक कि एक पुत्र उत्पन्न न हो जाय; और वह पुत्र मृत व्यक्ति का पुत्र माना जाता था । यद्यपि मनु ने नियोग की प्राचीन प्रथा की निन्दा की है, किन्तु उत्तराधिकार एवं रिक्थ के विभाजन में क्षेत्रज पुत्र के लिए व्यवस्था रखी है (९/१२०-१२१, १४५) । बृहस्पति ने लिखा है - "मनु ने प्रथम नियोग का वर्णन करके इसे निषिद्ध किया है, इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में लोगों में तपोबल एवं ज्ञान था, अतः वे नियमों का पालन तथैव कर सकते थे, किन्तु द्वापर एवं कलियुगों में लोगों में शक्ति एवं बल का ह्रास हो गया है, अतः वे नियोग के नियमों के पालन में असमर्थ हैं।"" पुत्रों के अनेक प्रकारों के विषय में हम 'व्यवहार' नामक अध्याय में पढ़ेंगे। विष्णुधर्मसूत्र (१५1३) की एक बात गौतम एवं वसिष्ठ में नहीं पायी जाती; "क्षेत्रज वह पुत्र है जो नियुक्त पत्नी या विधवा तथा पति के सपिण्ड या ब्राह्मण से उत्पन्न होता है।" महाभारत में नियोग के कतिपय उदाहरण प्राप्त होते हैं। आदिपर्व ( ९५ एवं १०३ ) है आया है कि सत्यवती ने मीष्म को उसके छोटे भाई विचित्रवीर्य (जो मृत हो चुका था ) के लिए उसकी रानियों से पुत्र उत्पन्न करने को उद्वेलित किया, किन्तु भीष्म ने अंगीकार नहीं किया । अन्ततोगत्वा सत्यवती ने अपने पुत्र व्यास को नियुक्त किया और इसके फलस्वरूप धृतराष्ट्र एवं पाण्डु उत्पन्न हुए। स्वयं ने अपनी रानी कुन्ती को किसी तपोयुक्त ब्राह्मण से पुत्र उत्पन्न कराने को कहा। पाण्डु ने कुन्ती से नियोग की कई एक गाथाएँ कहीं हैं (आदिपर्व १२० - १२३ ) और निष्कर्ष निकाला है कि अधिक-से-अधिक तीन पुत्र उत्पन्न किये जा सकते हैं, किन्तु यदि चौथे या पाँचवें पुत्र की उत्पत्ति हो जाय तो स्त्री स्वैरिणी ( विलासी) या बन्धकी (वेश्या) कही जायगी। आदिपर्व (६४ एवं १०४) में आया है कि परशुराम ने जब क्षत्रियों का नाश आरम्भ किया तो सहस्रों क्षत्राfirat ब्राह्मणों के पास पुत्रोत्पत्ति के लिए पहुँचने लगीं। अन्य उदाहरणों एवं नियोग-सम्बन्धी संकेतों के लिए देखिए आदिपर्व (१०४ एवं १७७), अनुशासनपर्व (४४१५२-५३ ) एवं शान्तिपर्व ( ७२ /१२ ) । स्मृतियों में नियोग सम्बन्धी नियमों के विषय में बहुत-से मत-मतान्तर अतः विश्वरूप, मेघातिथि ऐसे टीकाकारों ने अपने मत - प्रकाशन में पर्याप्त छूट रखी है। विश्वरूप ने याज्ञवल्क्य (१।६९ ) की व्याख्या करते हुए इस विषय मैं कई मत प्रकाशित किये हैं- (१) आज के युग में नियोग निकृष्ट है और स्मृति - विरुद्ध (मनु ९।६४ एवं ६८ ), (२) यह उपर्युक्त वर्णित मनु का ही मत है; (३) यह विकल्प से किया जाता है (नियोग वर्जित एवं आशापित दोनों है); (४) नियोग के विषय में स्मृतियों की उक्तियाँ शूद्रों के लिए (मनु ने ९१६४ में 'द्विजाति' शब्द प्रयुक्त किया है ) हैं (यह उक्ति सम्भवतः स्वयं विश्वरूप की है) ; यह राजाओं के लिए आज्ञापित था जब कि उत्तराधिकार के लिए कोई पुत्र नहीं होता था । विश्वरूप ने अपनी उक्तियाँ वृद्ध मनु एवं वायु की गाथा पर आधारित की हैं। विश्वरूप ने यह भी कहा है कि वीर्य की रानियों से व्यास द्वारा उत्पन्न पुत्रों की बात द्रौपदी के पाँच पतियों के विवाह की भाँति निराधार है। नियोग से उत्पन्न पुत्र किसका है ? इस विषय में भी मतैक्य नहीं है । वसिष्ठषमंसूत्र ( १७।६) ने स्पष्टतः इस प्रकार के विभिन्न मतों की ओर संकेत किया है; (१) प्रथम मत के अनुसार पुत्र जनक का होता था, किन्तु इस ४. उक्तो नियोगो मनुना निषिद्धः स्वयमेव तु । युगक्रमावशस्योयं कर्तुमभ्यविधानतः ॥ तपोशानसमायुक्ताः त्रेतायुगे नराः । द्वापरे च कलौ मां शक्तिहामिविनिर्मिता ।। अनेकथा कृताः पुत्रा ऋषिभिश्च पुरातनः । न शक्यतेऽभुना कर्तुं शक्तिहीनंरिबन्सनंः ॥ गृहस्पति (याशयत्यय १२६८-६९ की टीका में अपरार्क द्वारा तथा मनु ९।६८ की टीका में कुल्लूक द्वारा उद्धृत)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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