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________________ नियोग २३९ चाहिए और न दुर्व्यवहार करना चाहिए। धन-सम्पत्ति (रिक्य) की प्राप्ति की अभिलाषा से नियोग नहीं करना चाहिए। बौधायनधर्म सूत्र (२।२।१७) के अनुसार क्षेत्रज पुत्र वही है, जो निश्चित आज्ञा के साथ विधवा से या नपुंसक या रुग्ण पति की पत्नी से उत्पन्न किया जाय । मनु (९।५९-६१) का कयन है कि पुत्रहीन विधवा अपने देवर या पति के सपिण्ड से पुत्र उत्पन्न कर सकती है, नियुक्त पुरुष को अंधेरे में ही विधवा के पास जाना चाहिए, उसके शरीर पर घृत का लेप होना चाहिए और उसे एक ही (दो नहीं) पुत्र उत्पन्न करना चाहिए, किन्तु कुछ लोगों के मत से दो पुत्र उत्पन्न करने चाहिए। यही बात बौधायनधर्मसूत्र (२।२।६८-७०), याज्ञवल्क्य (११६८-६९) एवं नारद (स्त्रीपुंस, ८०-८३) में भी पायी जाती है। कौटिल्य (१११७) ने लिखा है कि बूढ़े एवं न अच्छे किये जाने वाले रोग से पीड़ित राजा को चाहिए कि वह अपनी रानी को नियुक्त कर किसी मातृबन्धु या अपने ही समान गुण वाले सामन्त द्वारा पुत्र उत्पन्न कराये। एक अन्य स्थान पर कौटिल्य ने पुनः कहा है कि यदि कोई ब्राह्मण बिना सन्निकट उत्तराधिकारी के मर जाय, तो किसी सगोत्र या मातृबन्धु को नियोजित कर क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न करना चहिए, वह पुत्र रिक्थ प्राप्त करेगा (कौटिल्य ३६)। नियोग के लिए निम्नलिखित दशाएँ आवश्यक थीं-(१) जीवित या मृत पति पुत्रहीन होना चाहिए। (२) कुल के गुरुजनों द्वारा ही निर्णीत पद्धति से पति के लिए पुत्र उत्पन्न करने के लिए पत्नी को नियोजित करना चाहिए; (३) नियोजित पुरुष को पति का भाई (देवर), सपिण्ड या पति का सगोत्र (गौतम के अनुसार सप्रवर या अपनी जाति का) होना चाहिए; (४) नियोजित पुरुष एवं नियोजित विधवा में कामुकता का पूर्ण अभाव एवं कर्तव्यज्ञान का मार रहना चाहिए; (५) नियोजित (नियुक्त) पुरुष के शरीर पर घृत या तेल का लेप लगा रहना चाहिए, उसे न तो बोलना चाहिए, न चुम्बन करना चाहिए और न स्त्री के साथ किसी प्रकार की रतिक्रीडा में संयुक्त होना चाहिए; (६) यह सम्बन्ध केवल एक पुत्र उत्पन्न होने तक (अन्य मतों से दो पुत्र उत्पन्न होने तक) रहता है; (७) नियुक्त विधवा को अपेक्षाकृत युवा होना चाहिए, उसे बूढ़ी या वन्ध्या (बाँझ), अतीतप्रजनन-शक्ति, बीमार, इच्छाहीन या गर्भवती नहीं होना चाहिए; एवं (८) एक पुत्र की उत्पत्ति के उपरान्त दोनों को एक-दूसरे से अर्थात् नियुक्त पुरुष को श्वशुर-सा एवं नियुक्त विधवा या स्त्री को वध-सा व्यवहार करना चाहिए (मनु ९।६२)। स्मृतियों में यह स्पष्ट आया है कि बिना गरुजनों द्वारा नियक्ति के या अन्य उपयक्त दशाओं के न रहने (यथा, यदि पति को पत्र हो) पर यदि देवर अपनी भाभी से सम्माग रे तो शह बलात्कार का अपराधी (अगम्यागामी) कहा जायगा (देखिए मन १।५८, ६३. १४३.१४४ एवं नारद-स्त्रीपुस, ८५-८६। स प्रकार के सम्भोग से उत्पन्न पुर जारज (कुलटोत्पन्न) कहा जायगा तथा सम्पत्ति का अधिकारी नहीं होगा नारद-स्त्रीपम,८४-८५) और वह उत्पन्न करनेवाले (जनक) का पुत्र कहा जायगा (तसिष्ठ धर्गमत्र १७।६३)। नारद के मत से यदि कोई विधवा या पुरुष नियोग के नियमों के प्रतिकल जाय तो गजा द्वारा उन दोनों को दण्ड मिलना चाहिए, नहीं तो गड़बड़ी उत्पन्न हो जायगी। इन सब नियन्त्रणों से स्पष्ट है कि धर्मसूत्रकाल में भी नियोग उतना सरल नहीं था और गह प्रथा उतनी प्रचलित नहीं थी! जहाँ गौतम ऐसे धर्मसूत्रकारों ने नियोग को वैध ठहराया है, वहीं कतिपय अन्य धर्मसूत्रकारों ने, जो काल गौतम के आसपास की घं, ने मापद मानकर वर्जित कर दिया या! आपस्तम्ब सूत्र (२।१०।२७/५-७), वोधायनका मूत्र ( ३८) नियोग की भर्त्सना की है। मनु (९९६४-६८) ने नियोग का वर्णन करने के उपरान्त इसकी बुरी तरह से भर्त्सना की है। मनु ने इसे नियमविरुद्ध एवं अनैतिक ठहराया है। उन्होंने राजा वेन को इसका प्रथम प्रचालक माना है और उसे वर्ण-संकरता का जनक मानकर निन्दा की है। उन्होंने लिखा है कि भद्र एवं विज्ञ लोग नियोग की निन्दा करते हैं, किन्तु कुछ लोग अज्ञानवश इसे अपनाते हैं। मनु (९।६९-७०) ने नियोग का अर्थ यह कहकर समझाया है कि नियोग के विषय में नियम केवल उसी कन्या के लिए है, जो वधूरूप में प्रतिश्रुत हो For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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