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________________ विषवा-धर्म ३३१ है, अपने पति के आध्यात्मिक लाभ को अवश्य प्राप्त करती है।' वृद्धहारीत (११।२०५-२१०) ने उसकी आमरण दिनचर्या दी है--"उसे बाल सँवारना छोड़ देना चाहिए, पान खाना, गन्ध, पुष्प, आभूषण एवं रंगीन परिधान का प्रयोग छोड़ देना चाहिए, पीतल-काँसे के बरतन में भोजन नहीं करना चाहिए, दो बार भोजन करना, अंजन लगाना आदि त्याग देना चाहिए, उसे श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिए, उसे इन्द्रियों एवं क्रोध को दबाना चाहिए, धोखाधड़ी से दूर रहना चाहिए, प्रमाद एवं.निन्दा से मुक्त होना चाहिए, पवित्र एवं सदाचरण वाली होना चाहिए, सदा हरि की पूजा करनी चाहिए, रात्रि में पृथिवी पर कुश की चटाई पर शयन करना चाहिए, मनोयोग एवं सत्संगति में लगा रहना चाहिए।" बाण ने हर्षचरित (६, अन्तिम वाक्यांश) में लिखा है कि विधवाएँ अपनी आँखों में अञ्जन नहीं लगाती थों और न मुख पर पीला लेप ही करती थीं, वे अपने बालों को यों ही बांध लेती थीं। प्रचेता ने संन्यासियों एवं विधवाओं को पान खाना, तेल वगैरह लगाकर स्नान करना एवं धातु के पात्रों में भोजन करना मना किया है। आदिपर्व (१६०।१२) में आया है-"जिस प्रकार पृथिवी पर पड़े हुए मांस के टुकड़े पर पक्षीगण टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार पतिहीन स्त्री पर पुरुष टूट पड़ते हैं।" शान्तिपर्व (१४८।२) में आया है-"बहुत पुत्रों के रहते हुए भी सभी विधवाएँ दुःख में हैं।"५ स्कन्दपुराण (काशीखण्ड, ४।५५।७५ एवं ३, ब्रह्मारण्य भाग ५०५५) में विधवाधर्म के विषय में लम्बा विवेचन है, जिसका अधिकांश मदनपारिजात (पृ० २०२-२०३), निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु एवं अन्य निबन्धों में उद्धृत है। कुछ बातें यहाँ अवलोकनीय है---"अमंगलों में विधवा सबसे अमंगल है, विधवा-दर्शन से सिद्धि नहीं प्राप्त होती (हाथ में लिया हुआ कार्य सिद्ध नहीं होता), विधवा माता को छोड़ सभी विधवाएँ अमंगलसूचक हैं, विधवा की आशीर्वादोक्ति को विज्ञ जन ग्रहण नहीं करते, मानो वह सर्पविष हो।" स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (अध्याय ४) में निम्न उक्तियाँ आयी हैं--"विधवा के कबरीबन्ध (सिर के केशों को संवार कर बाँधने) से पति बन्धन में पड़ता है, अतः विधवा को अपना सिर मुण्डित रखना चाहिए ! उसे दिन में केवल एक बार खाना चाहिए, या उसे मास भर उपवास करना चाहिए या चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। जो स्त्री पर्यंक पर शयन करती है वह अपने पति को नरक मे डालती है। विधवा को अपना शरीर सुगंधित लेप से नहीं स्वच्छ करना चाहिए, और न उसे सुगंधित पदार्थों का सेवन करना चाहिए, उसे प्रति दिन तिल, जल एवं कुश से अपने पति, पति के पिता एवं पति के पितामह के नाम एवं गोत्र से तर्पण करना चाहिए, उसे मरते समय भी बैलगाड़ी में नहीं बैठना चाहिए, उसे कंचुकी (चोली) नहीं पहननी चाहिए, उसे रंगीन परिधान नहीं धारण करने चाहिए तथा वैशाख, कात्तिक एवं माघ मास में विशेष व्रत करने चाहिए।" निर्णयसिन्धु ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत कर कहा है कि श्राद्ध का भोजन अन्य गोत्र वाली विधवा द्वारा नहीं बनाना चाहिए। हिन्दू विधवा की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी और उसका भाग्य तो किसी भी स्थिति में स्पृहणीय नहीं माना ___ ३. शरीराध स्मृता जाया पुष्यापुण्यफले समा। अन्वारूढा जीवती च साध्वी भतुहिताय सा॥ बृहस्पति (अपराक. पृ० १११ में उड़त)। ४. ताम्बूलाभ्यञ्जनं चैव कांस्यपात्रे च भोजनम् । यतिश्च ब्रह्मचारी च विधया च विवर्जयेत् ॥ प्रचेता (स्मृतिचन्तिका १, पृ० २२२ तथा शुयितत्व, पृ० ३२५ में उबृत); मिलाइए “ताम्बूलोऽभर्तृकस्त्रीणां यतीना ब्राह्मचारिणाम् । एकक मांसतुल्यं स्यान्मिलितं तु सुरासमम् ॥ (स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम, ५० १६१ में उपत)। ५. उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यया खगाः। प्रार्थयन्ति जनाः सर्वे पतिहीनां तथा स्त्रियम् ॥ आदिपर्व १६०३१२; सर्वापि विधवा नारी बहुपुत्रापि शोचते॥ शान्तिपर्व १४८।२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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