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अध्याय १२ विधवाधर्म, स्त्रियों के कुछ विशेषाधिकार एवं परदा प्रथा
विधवाधर्म ऋग्वेद (४।१८।१२, १०।१८१७, १०।४०।२ एवं ८) में विधवा' शब्द कई बार आया है, किन्तु इनमें अन्तिम अर्थात् ऋग्वेद १०।४०।२ को छोड़कर अन्य अंश विधवा की दशा पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डालते। ऋग्वेद (११८७। ३) में आया है कि मरुतों की अति शीघ्र गतियों से पृथिवी पतिहीन स्त्री की भाँति काँपती है। इससे प्रकट होता है कि विधवाएँ या तो दुःख के मारे या बलात्कार के डर से काँपती थीं।'
बौधायनधर्मसूत्र (२।२।६६-६८) के मत से विधवा को साल भर तक मधु, मांस, मदिरा एवं नमक छोड़ देना चाहिए तथा भूमि पर शयन करना चाहिए, किन्तु मौद्गल्य के मत से केवल छ: मास (तक ही ऐसा करना चाहिए)। इसके उपरान्त यदि वह पुत्रहीन हो और गुरुजन आदेश दें तो वह अपने देवर से एक पुत्र उत्पन्न कर सकती है। यही बात वसिष्ठधर्मसूत्र (१७।५५-५६) में भी पायी जाती है। मनु (५।१५७-१६०) की बतायी हुई व्यवस्था अधिकांश में सभी स्मृतियों में पायी जाती है ; “पति के मर जाने पर स्त्री, यदि वह चाहे तो, केवल पुष्पों, फलों एवं मूलों को ही खाकर अपने शरीर को गला दे (दुर्बल बना दे), किन्तु उसे किसी अन्य व्यक्ति का नाम भी नहीं लेना चाहिए। मृत्यु-पर्यन्त उसे संयम रखना चाहिए, व्रत रखने चाहिए, सतीत्व की रक्षा करनी चाहिए और पतिव्रता के सदाचरणा एवं गुणों की प्राप्ति की आकांक्षा करनी चाहिए। पति की मृत्यु के उपरान्त यदि साध्वी नारी अविवाह के नियम के अनुसार चले अर्थात् अपने सतीत्व की रक्षा में लगी रहे, तो वह पुत्रहीन रहने पर भी स्वर्गारोहण करती है, जैसा कि प्राचीन नैष्ठिक ब्रह्मचारियों (यथा सनक) ने किया था।" कात्यायन के अनुसार “पुत्रहीन विधवा यदि अपने पति के विष्टर (बिस्तर या सेज) को बिना अपवित्र किये गरुजनों के साथ रहती हई अपने को संयमित रखती है तो उसे मृत्यु-पर्यन्त पति की सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। उसके उपरान्त उसके पति के उत्तराधिकारी लोग सम्पत्ति के अधिकारी होते हैं। धार्मिक व्रतों, उपवासों एवं नियमों में संलग्न, ब्रह्मचर्य के नियमों से पूर्ण, इन्द्रियों को संयमित करती एव दान करती हुई विधवा पुत्रहीन होने पर भी स्वर्ग को जाती है। पराशर (४।३१) ने भी मनु (५।१६०) के समान ही कहा है। बृहस्पति का कथन है-"पली पति की अर्धागिनी घोषित हो चुकी है, वह पति के पापों एवं पुण्यों की भागी होती है, एक सद्गुणी पत्नी, चाहे वह पति की चिता पर भस्म हो जाती है या जीवित रह जाती
१. प्रेषामज्मेषु विथुरेव रेजते भूमिर्यामेषु यस युञ्जते शुभे। ऋग्वेद (११८७३३)।
२. अपुत्रा शयनं भर्तुःपालयन्ती गुरौ स्थिता । भुञ्जीतामरणात्यान्ता दायादा अर्ध्वमाप्नुयुः ॥व्रतोपवासनिरता ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता। दमदानरता नित्यमपुत्रापि दिवं व्रजेत् ॥ कात्यायन (वीरमित्रोदय पृ० ६२६-६२७ में उद्धृत)। प्रथम श्लोक दायभाग, स्मृतिचन्द्रिका, एवं अन्य ग्रन्थों में उद्धृत है।
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