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स्त्रियों का अधिकार नहीं था; इस विषय में हमें शाकुन्तल (६) से प्रकाश मिलता है, जहाँ मन्त्री ने राजा को लिखा है कि मरणशील वणिक् की सम्पत्ति विधवा को न मिलकर राजा को मिलेगी। किन्तु याज्ञवल्क्य (२।१३५), विष्णु एवं कात्यायन ने कहा है कि पुत्रहीन पुरुष की विधवा प्रथम उत्तराधिकारी है। इससे स्पष्ट है कि मध्य काल में प्रारम्भिक सूत्रकाल की अपेक्षा विधवा के अधिकार अधिक सुरक्षित थे। किन्तु अन्य बातों में स्त्रियों की दशा में अवनति होती गयी, वे शूद्र के समान समझी जाने लगीं। यास्क के समय में उत्तर भारत में विधवा को उत्तराधिकार नहीं प्राप्त था, क्योंकि उन्होंने दक्षिण के देशों की विधवा के ही उत्तराधिकार की चर्चा की है---"दक्षिणी देशों में पुत्र-हीन पुरुष की विधवा सभा में जाती है, चौकी पर खड़ी होती है, सब लोग उस पर अक्ष चलाते हैं और वह पति की सम्पत्ति पाती है।"
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