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________________ ३२८ धर्मशास्त्र का इतिहास स्त्रियों को सामान्यतः भर्त्सना के शब्द सुनने पड़े हैं, किन्तु स्मृति-ग्रन्थों में माता की प्रशंसा एवं सम्मान में बहुतकुछ कहा गया है। गौतम (२०५६) का कहना है--"आचार्य (वेदगुरु) गुरुओं में श्रेष्ठ है, किन्तु कुछ लोगों के मत से माता ही सर्वश्रेष्ठ है।" आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१०।२८१९) का कहना है कि पुत्र को चाहिए कि वह अपनी माता की सदा सेवा करे, मले ही वह जातिच्युत हो चुकी हो, क्योंकि वह उसके लिए महान् कष्टों को सहन करती है। यही बात बोधायनधर्मसूत्र (२।२।४८) में भी है, किन्तु यहाँ पुत्र को अपनी जातिच्युत माता से बोलना मना किया गया है। वसिष्ठधर्मसूत्र (१३।४७) के मत से "पतित पिता का त्याग हो सकता है, किन्तु पतित माता का नहीं, क्योंकि पुत्र के लिए वह कभी भी पतित नहीं है।"२८ मनु (२।१४५) के अनुसार आचार्य दस उपाध्यायों से महत्ता में आगे है, पिता सौ आचार्यों से आगे है, माता एक सहस्र पिताओं से बढ़कर है (वसिष्ठधर्मसूत्र १३१४८)। शंखलिखित ने एक बहुत ही उपकारी सम्मति दी है.---"पुत्र को पिता एवं माता के युद्ध में किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए, किन्तु यदि वह चाहे तो माता के पक्ष में बोल सकता है, क्योंकि माता ने उसे गर्भ में धारण किया एवं उसका पालन-पोषण किया; पुत्र, जब तक वह जीवित है, अपनी माता के ऋण से छुटकारा नही पा सकता, केदल सौत्रामणि यज्ञ करने से ही उऋण हो सकता है।" याज्ञवल्क्य (११३५) के अनुसार अपने गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय से माता बढ़कर है। अनुशासनपर्व (१०५।१४-१६) का कहना है कि माता महत्ता में दस पिताओं से, यहाँ तक कि सारी पृथिवी से बढ़कर है. माता से बढ़कर कोई गुस नहीं है। शान्तिपर्व (२६७) में भी माता की प्रशंसा की गयी है। अत्रि (१५१) के मत से माता से बढ़कर कोई अन्य गुरु नहीं है। पाण्डवों ने अपनी माता कुन्ती को सर्वोच्च सम्मान दिया था। आदिपर्व (३७।४) में आया है-"सभी प्रकार के शापों से छुटकारा हो सकता है किन्तु माता के शाप से छुटकारा नहीं प्राप्त हो सकता।"२२ स्त्रियों के दायाधिकारों एवं वसीयत के विषय में विस्तार के साथ आगे कहेंगे। यहाँ पर संक्षेप में ही लिखा जा रहा है। आपस्तम्ब, मनु एवं नारद ने पुत्रहीन पुरुष की विधवा को उत्तराधिकारी नहीं माना है, किन्तु गौतम (२८।१९) ने उसे सपिण्डों एवं सगोत्रों के समान ही सम्पत्ति का उत्तराधिकारी माना है। प्राचीन काल में विधवा को दायाधिकार मित्यन्योन्यं वत्सयोतिमस्तु॥' मालतीमाषय ६। और देखिए उत्तररामचरित (१) का प्रसिद्ध श्लोक 'अतं सुखदुःखयोरनुगुणं...आदि। २८. आचार्यः श्रेष्ठो गुरूणां मातेत्येके । गौतम २१५६; माता पुत्रत्वस्य भूयांसि कर्माप्यारभते तस्यां शुश्रूषा नित्या पतितायामपि। आप० ५० ११०।१८९; पतितामपि तु मातरं बिभृयावनभिभाषमाणः। बौ० ५० २१२१४८, पतितः पिता परित्याज्यो माता तु पुत्रे न पतति। वसिष्ठ १३।४७।। २९. (१) न मातापित्रोरन्तरं गच्छेत्पुत्रः। कावं मातुरेवानुबयात्सा हि पारिणी पोषधी च । न पुत्रः प्रति मुच्येतान्यत्र सौत्रामणियागाजीवणान्मातुः । शंखलिखित (संस्कारप्रकाश पृ० ४७९); और देखिए विवादरत्नाकर (पृ० ३५७), स्मृतिचन्द्रिका (जिल्द १, पृ. ३५)।। (२) नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः। नास्ति मातृसमंत्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया ॥ शान्तिपर्व (२६७-३१); माता गुरुतरा भूमेः । वनपर्व ३१३१६०; नास्ति वेदात्परं शास्त्रं नास्ति मातुः परो गुरुः । नास्ति दानात्परं मि मह लोके परत्र च ॥ अत्रि १५१; नास्ति सत्यात्परो धर्मो नास्ति मातृसमो गुः। शान्तिः ३४३॥१८॥ (३) सर्वेषामेव शापाना प्रतिषातो हि विद्यते। न तु मात्राभिशप्तानां मोक्षः क्वचन विद्यते॥ आदिपर्व ३७॥४॥ Jain Education International Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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