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________________ स्त्रियों की आलोचना प्राचीन काल में भी कुछ ऐसे लेखक हो गये हैं, जिन्होंने स्त्रियों के विरोध में कही गयी अनर्गल, निरर्थक तथा आधारहीन उक्तियों का विरोध एवं उनकी कटु आलोचनाएँ की हैं। वराहमिहिर (छठी शताब्दी) ने बृहत्संहिता (७४) में स्त्रियों के पक्ष का ओजस्वी समर्थन किया है, तथा उनकी प्रशंसा में बहुत कुछ कह डाला है। वराहमिहिर के मत से स्त्रियों पर धर्म एवं अर्थ आश्रित हैं, उन्हीं से पुरुष लोग इन्द्रिय-सुख एवं सन्तान-सुख प्राप्त करते हैं, ये घर की लक्ष्मी हैं, इनको सदैव सम्मान एवं धन देना चाहिए। इसके उपरान्त वराहमिहिर ने उन लोगों की भर्त्सना की है जो वैराग्यमार्ग का अनुसरण कर स्त्रियों के दोषों की चर्चा करते हैं और उनके गुणों के विषय में मौन हो जाते हैं। वराहमिहिर निन्दकों से पूछते हैं-"सच बताओ, स्त्रियों में कौन से दोष हैं जो तुम लोगों में नहीं पाये जाते ? पुरुष लोग धृष्टता से स्त्रियों की भर्त्सना करते हैं, वास्तव में वे (पुरुषों की अपेक्षा) अधिक गुणों से सम्पन्न होती हैं।" वराहमिहिर ने मनु के वचनों को अपने समर्थन में उद्धृत किया है; “अपनी माँ या अपनी पत्नी भी स्त्री ही है, पुरुषों की उत्पत्ति उन्हीं से होती है ; अरे कृतघ्नी एवं दुष्ट, तुम जब इस प्रकार उनकी भर्त्सना करते हो तो तुम्हें सुख क्योंकर मिलेगा? शास्त्रों के अनुसार दोनों पति एवं पत्नी पापी हैं यदि वे विवाह के प्रति सच्चे नहीं होते, पुरुष लोग शास्त्रों की बहुत कम परवाह करते हैं (किन्तु स्त्रियाँ बहुत परवाह करतो हैं), अतः स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अति उच्च हैं।" वराहमिहिर पुनः कहत हैं-"दुष्ट लोगों की धृष्टता कितनी बड़ी है, ओह ! वे पवित्र एवं निरपराध स्त्रियों पर गालियों की बौछार करते हैं, यह तो वैसा ही है जैसा कि चोरों के साथ देखा जाता है, अर्थात् चोर स्वयं चोरी करते हैं और पुनः शोर-गुल करते हैं, 'ठहरो,ओ चोर !' अकेले में पुरुष स्त्री की चाटकारी करते हैं, किन्तु उसके मर जाने पर उनके पास इसी प्रकार के मीठे शब्द नहीं होते; किन्तु स्त्रियाँ कृतज्ञता के वश में आकर अपने पति के शवों का आलिंगन करके अग्नि में प्रवेश कर जाती है।" कालिदास, बाण एवं भवभूति जैसे साहित्यकारों को छोड़कर वारहमिहिर के अतिरिक्त किसी अन्य लेखक ने स्त्रियों के पक्ष में तथा उनकी प्रशंसा में इतने सुन्दर वाक्य नहीं कहे हैं।" ___ (२) अनुशासन पर्व के ३८१५-६ और मनु के ९।१४ में कोई अन्तर नहीं है। स्वभावस्त्वेष नारीणां त्रिषु लोकेषु दृश्यते । विमुक्तधर्माश्चपलास्तीक्ष्णा भेदकराः स्त्रियः॥ अरण्यकाण्ड ४५।२९-३०। (३) स्त्रीणामष्टगुणः कामो व्यवसायश्च षड्गुणः। लज्जा चतुर्गुणा तासामाहारश्च तदर्धकः॥ बृहत्पराशर, पृ० १२१। (४) अनृतं साहसं माया मुखत्वमतिलोभिता। अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः॥ २६. येप्यंगनानां प्रवदन्ति दोषान्वैराग्यमार्गेण गुणान् विहाय । ते दुर्जना में मनसो वितर्कः सद्भाववाक्यानि न तानि तेषाम् ॥ प्रबूत सत्यं कतरोंऽगनानां दोषस्तु यो नाचरितो मनुष्यैः। घाष्येन पुंभिः प्रमदा निरस्ता गुणाधिकास्ता मनुनात्र चोक्तम् । जाया वा स्याजनित्री दा स्यात्संभवः स्त्रीकृतो नृणाम् । हे कृतघ्नास्तयोनिन्दां कुर्वतां यः कुतः सुखम् ॥ अहो पाष्यमसाधूनां निन्दतामनघाः स्त्रियः। मुष्णतामिव चौराणां तिष्ठ चौरेति जल्पताम् ॥ पुरुषश्चटुलानि कामिनीनां कुरुते यानि रहो न तानि पश्चात् । सुकृतज्ञतयांगना गतासूनवगुह्य प्रविशन्ति सप्तजिह्वम् । बृहत्संहिता ७४१५ ६, ११, १५, १६ । ७वा एवं ९वा श्लोक बौधायनगृह्यसूत्र (२।२।६३-६४) में, १०वाँ मनु (३१५८) में तथा ७वाँ एवं ८वां वसिष्ठ (२८१४ एवं ९) में पाये जाते हैं। २७. कालिदास एवं भवभूति ने बड़े ही कोमल ढंग से पति एवं पत्नी के प्रिय एवं मधुर संबंध की ओर संकेत किया है-'गृहिणी सचिवः सखी मिथः प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ। करुणाविमुखेन मृत्युना हरता त्वां यद कि न मेहतम् ॥ रघुवंश ८०६६; 'प्रेयो मित्र बन्धुता वा समग्रा सर्वे कामाः शेवधि वितं वा। स्त्रीणां भर्ता धर्मदाराश्च पुंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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