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________________ ३२६ धर्मशास्त्र का इतिहास नारियाँ भी स्वतन्त्र होने पर गर्त में गिर जाती हैं।" स्त्री का प्रमुख कर्तव्य है पति सेवा, अन्य कार्य ( व्रत, उपवास, नियम आदि ) वह बिना पति की आज्ञा से नहीं कर सकती ( हेमाद्रि, व्रतखण्ड १, पृ० ३६२ ) ।' २४ महाभारत, मनुस्मृति, अन्य स्मृतियों एवं पुराणों में स्त्रियों पर घोर नैतिक लाछन लगाये गये हैं । नीचे कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं । अनुशासनपर्व ( १९/६ ) के अनुसार, “सूत्रकार का निष्कर्ष है कि स्त्रियाँ अनृत (झूठी ) हैं ", "स्त्रियों से बढ़कर कोई अन्य दुष्ट नहीं है, ये एक साथ ही उस्तुरा की धार (क्षुरधार) हैं, विष हैं, सर्प और अग्नि हैं, (अनुशासनपर्व २८। १२ एवं २९ ) ; "सैकड़ों-हजारों में कहीं एक स्त्री पतिव्रता मिलेगी" (अनुशासनपर्व १९।९३); "स्त्रियाँ वास्तव में दुर्दमनीय हैं, वे अपने पति के बन्धनों में इसीलिए रहती हैं कि उन्हें कोई अन्य पूछता नहीं ( प्यार नहीं करता) और क्योंकि वे नौकरों-चाकरों से डरती हैं" (अनुशासनपर्व ३८।१६ ) । और देखिए अनुशासनपर्व (३८1 २४-२५ एवं ३९।६-७ ) “स्त्रियों में राक्षसों, शम्बर, नमुचि तथा अन्य लोगों की धूर्तता पायी जाती है ।" रामायण ने भी महाभारत की भाँति स्त्रियों का रोना रोया है और उनकी भरपूर निन्दा की है - ".... वे धर्मभ्रष्ट हैं. चंचल हैं, क्रूर हैं, और हैं विरक्ति उत्पन्न करने वाली" (अरण्यकाण्ड, ४५।२९-३० ) । एक स्थान पर मनु महाराज ( ९ १४१५) बहुत अनदार हो गये हैं- “वे कामी हैं, चंचल हैं, प्रेमहीन हैं, पति-द्रोही हैं, पर-पुरुष प्रेमी हैं, चाहे वह परपुरुष सुन्दर हो या असुन्दर उन्हें तो बस पुरुष चाहिए ।" "पुरुषों को अपनी ओर आकृष्ट करना स्त्रियों का स्वभाव-सा है, अतः विज्ञ लोग नवयुवतियों से सावधानी से बातचीत करते हैं, क्योंकि नवयुवतियाँ सभी को, चाहे वे विज्ञ हों या अविज्ञ, पथभ्रष्ट कर सकती हैं" ( मनु २।२१३२१४, अनुशासनपर्व ४८।३७-३८) । बृहत्पराशर के अनुसार स्त्रियों की काम-शक्ति पुरुषों की काम-शक्ति को आठगुनी होती है। आधुनिक काल में कुछ वृद्ध लोग स्त्रियों के दोषों की गणना करते हैं- अनृत (झूठ बोलना ), साहस (विवेकशून्य कार्य), माया ( धूर्तता ), मूर्खत्व, अति लोभ, अशौच ( अपवित्रता ), निर्दयता - ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष है । २५ २४. अस्वतन्त्रा धर्मे स्त्री । गौतम १८ |१; अस्वतन्त्रा स्त्री पुरुषप्रधाना । वसिष्ठ ५।१; अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषस्व दिवानिशम् । विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे ।। पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थाविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । मनु ९।२-३ । अन्तिम बात वसिष्ठ (५१३), बौधायनधर्मसूत्र ( २/२/५२ ). नारद ( दायभाग, ३१ ) एवं अनुशासनपर्व ( २०।२१) में भी पायी जाती है। मृते भर्तर्यपुत्रायाः प्रतिपक्षः प्रभुः स्त्रियाः । विनियोगात्मरक्षासु भरणे स च ईश्वरः ॥ परिक्षीणे पतिकुले निर्मनुष्ये निराधये । तत्सपिण्डेषु वासत्सु पितृपक्षः प्रभुः स्त्रियाः ॥ स्वातन्त्र्याद्विप्रणश्यन्ति कुले जाता अपि स्त्रियः । अस्वातन्त्र्यमतस्तासां प्रजापतिरकल्पयत् । नारद ( दायभाग प्रकरण, २८-३०) । भेधातिथि एवं कुल्लूक ने मनु (५।१४७) की टीका में आधा श्लोक “तत्सपिण्डेषु स्त्रियाः” उद्धृत किया है और दूसरा आधा जोड़ दिया है--- "पक्षद्वयावसाने तु राजा भर्ता स्त्रिया मतः" जिसके अनुसार राजा को स्त्रियों का पति एवं पिता के कुल में किसी पुरुष के न रहने पर अन्तिम रक्षक मान लिया गया है। नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न श्राद्धं नाप्युपोषितम् । भर्तृ शुश्रूषर्यवंता लोकानिष्टान् व्रजन्ति हि ॥ मार्कण्डेय १६।६१ । २५. (१) प्रजापतिमतं ह्येतन्न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । ( अनुशासनपर्व २०११४ ) ; अनृताः स्त्रिय इत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति । अनृताः सिरत्रय इत्येव वेवेष्वपि हि पठ्यते ॥ ( अनुशासन पर्व १९ । ६-७ ) ; न स्त्रीभ्यः किचिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति वै ।. . क्षुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः । (अनुशासनपर्व ३८।१२ एवं २९ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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