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________________ (उत्तरीय) ओढ़े बाहर न जाना, तेज न चलना, व्यापारी, संन्यासी, बूढ़े आदमी या वैद्य को छोड़कर किसी अन्य अपरिचित पुरुष से वार्तालाप न करना, नाभि को न दिखाना, साड़ी को एड़ी तक पहनना, कुच न दिखाना, हाथ से या वस्त्र से मुख ढंककर ही जोर से हंसना, अपने पति या सम्बन्धी से घृणा न करना, गणिका, जुआ खेलने वाली स्त्री, अभिसारिका (प्रेमियों से मिलने के लिए स्थान एवं काल ठीक करने वाली): साधुनी, भविष्य कहने वाली स्त्री, जादू-टोना एवं गुप्तक्रिया करनेवाली दुश्चरित्रा स्त्री का साथ न करना चाहिए, क्योंकि जैसा कि विज्ञ लोगों ने कहा है, अच्छे घर की स्त्री भी दुश्चरित्रों के साथ से बिगड़ सकती हैं। कुछ हेर-फेर के साथ ये बातें विष्णुधर्मसूत्र (२५।१।६) में भी पायी जाती हैं। द्रौपदी ने कहा है-"मेरा पति जो नहीं खाता, पीता या पाता, मैं भी उसे नहीं खाती, पीती या पाती। मैं पाण्डवों की कुल सम्पत्ति, आय एवं व्यय का ब्यौरा जानती हूँ" (वन-पर्व २३३)। कामसूत्र (६३१॥३२) ने भी साल भर के आय-व्यय की जानकारी के लिए स्त्री को आदेशित किया है। मनु (८।३६१) ने वजित नारी से बात करने पर पुरुष के लिए एक सुवर्ण दण्ड की व्यवस्था दी है, याज्ञवल्क्य (२।२८५) ने (पति या पिता द्वारा वर्जित) पुरुष से बात करने पर स्त्री के लिए एक सौ पण दण्ड की व्यवस्था दी है तथा वजित नारी से बात करने पर पुरुष के लिए दो सौ पण दण्ड की व्यवस्था दी है। बृहस्पति के अनुसार स्त्री को अपने पति एवं अन्य गुरुजनों के पूर्व ही सोकर उठ जाना चाहिए, उनके खा लेने के उपरान्त भोजन एवं व्यंजन लेना चाहिए तथा उनसे नीचे आसन पर बैठना चाहिए (स्मृतिचन्द्रिका. व्यवहार, पृ० २५७ में उद्धृत)। शंख-लिखित के अन्सार पति की आज्ञा से ही पत्नी प्रत, उपवास, नियम, देव-पूजा आदि कर सकती है।५।। पुराणों ने भी स्त्रीधर्म के विषय में बहुधा विस्तार से लिखा है। दो-एक उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। भागवत (७।२।२९) के अनुसार जो नारी पति को हरि के समान मानती है, वह हरि के लोक में पति के साथ निवास करती है। स्कन्दपुराण (ब्रह्मखण्ड, धर्मारण्य-परिच्छेद, अध्याय ७) ने पतिव्रता स्त्री के विषय में विस्तार के साथ लिखा है-“पत्नी को पति का नाम नहीं लेना चाहिए, एसे चाल-चलन से (पति का नाम न लेने से) पति की आयु बढ़ती है, उसे दूसरे पुरुष का नाम भी नहीं लेना चाहिए। चाहे पति उसे उच्च स्वर से अपराधी ही क्यों न सिद्ध कर रहा हो, पीटी १४. नानुक्ता गृहानिगच्छेत् । नानुत्तरीया। न त्वरितं व्रजेत् । न परपुरुषमभिभाषेतान्यत्र वणिक्प्रवजितवृक्षवैद्येभ्यः। न नाभिं दर्शयेत् । आ गुल्फादासः परिदध्यात्। न स्तनौ विवृतौ कुर्यात् । न हसेदनपावृता। भर्तार तबन्धन्वा न द्विष्यात्। न गणिका-धूर्ताभिसारिणी-प्रव्रजिताप्रेक्षणिकामायामूलकुहककारिकादुःशीलादिभिः सहकत्र तिष्ठेत् । संसर्गेण हि कुलस्त्रीणां चारित्यं दुष्यति।-मिताक्षरा द्वारा याज्ञवल्क्य (११८७) टोका में उद्धृत, अपराकं (पृ० १०७), मदनपारिजात (पृ० १९५), स्मृतिचन्द्रिका (व्यवहार, पृ० २४९-२५० एवं विवादरत्नाकर (पृ० ४३०); परपुरुष से बात करने के विषय में देखिए वनपर्व (२६६॥३)--एका ह्यहं सम्प्रति ते न वाचं ददानि वे भद्र निबोध चेदम् । अहं त्वरण्ये कथमेकमेका स्वामालपेयं निरता स्वधर्म। मिलाइए अनुशासनपर्व (१४६।४३) । शंख द्वारा प्रयुक्त 'मूलकारिका' का अर्थ है जड़ी-बूटी द्वारा वशीकरण करनेवाली । और देखिए वनपर्व (२३३१७-१४), जिसमें अन्तिम वाक्य है "मूलप्रचारैहि विषं प्रयच्छन्ति जिघांसवः।" १५. पूर्वोत्थानं गुरुष्वर्वाग् भोजनव्यञ्जनक्रिया। जघन्यासनशायित्वं कर्म स्त्रीणामुदाहृतम् ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका, व्यवहार, पृ० २५७ में उद्धृत)। भर्तुरनुज्ञया व्रतोपवासनियमेज्यादीनामारम्भः स्त्रीधर्मः। शंखलिखित (स्मृतिधन्द्रिका, व्यवहार, पृ० २५२ में उड़त)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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