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धर्मशास्त्र का इतिहास जाने पर उसे जोर से रोना भी नहीं चाहिए, उसे हंसमुख ही रहना चाहिए। पतिव्रता को हल्दी, कुंकुम, सिन्दूर, अंजन कंचुकी (चोली), ताम्बूल, शुभ आभूषणों का व्यवहार करना चाहिए तथा अपने केशों को संवार रखना चाहिए। पद्मपुराण (सृष्टिखण्ड, अध्याय ४७, श्लोक ५५) का कहना है कि वह स्त्री पतिव्रता है जो कार्य में दासी की मांति, संभोग में अप्सरा जैसी, भोजन देने में मां की मांति हो तथा विपत्ति में मन्त्री (अच्छी-अच्छी राय देने वाली) हो।
जब पति यात्रा में घर से दूर हो तो पत्नी को किस प्रकार रहना चाहिए? इस विषय में विशिष्ट नियमों की व्यवस्था की गयी थी। शंखलिखित (अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृ० १०८, स्मृतिचन्द्रिका, व्यवहार, पृ० २५३) के अनु. सार पति के दूर रहने पर(यात्रा में)पत्नी को झूला, नृत्य दृश्यावलोकन, शरीरानुलेपन, वाटिका-परिभ्रमण, मुले स्थान में शयम, सुन्दर एवं सुस्वादु भोजन एवं पेय, गेंद-क्रीडा, सुगंधित धूप-गंधादि, पुष्यों, आभूषणों, विशिष्ट ढंग से वंतमंजन, अंजन से दूर रहना चाहिए। याज्ञवल्क्य (१९८४) ने यही बात संक्षेप में कही है-"जिस स्वी का पति विदेश गया हो, उसे क्रीडा-कौतुक, शरीर सज्जा, समाजों एवं उत्सवों का दर्शन, हेंसना, अपरिचित के घर में जाना मादि छोड़ देना चाहिए।" अनुशासनपर्व (१२३।१७) के अनुसार विदेश गये हुए पुरुष की पत्नी को अंजन, रोचन, नैयमिक स्नान, पुष्प, अनुलेपन एवं आभूषण छोड़ देने चाहिए। मनु (९।७४-७५) ने पति को विदेश गमन के समय अपनी पत्नी को जीविका का प्रबन्ध कर देने को कहा है, क्योंकि ऐसा न करने से पत्नी कुमार्ग में जा सकती है। उन्होंने लिखा है-- "पत्नी की जीविका, भरण-पोषण का प्रबन्ध करके जब पति विदेश चला जाता है तो पत्नी को व्यवस्था के भीतर ही रहना चाहिए; यदि पति बिना व्यवस्था किये चला जाय तो पत्नी को सिलाई-बुनाई जसे शिल्प द्वारा अपना प्रतिपालन कर लेना चाहिए।" यही बात विष्णुधर्मसूत्र में भी पायी जाती है (२५।६।१०)। न्यास-स्मृति (२०५२) के अनुसार विदेश गये हुए पति की पत्नी को अपना चेहरा पीला एवं दुखी बना लेना चाहिए, उसे अपने शरीर का शृंगार नहीं करना चाहिए, उसे पतिपरायण होना चाहिए, उसे पूरा भोजन नही करना चाहिए तथा अपने शरीर को सुखा देना नाहिए। विकाण्ड मण्डन (१९८०-८१ एवं ८५) के अनुसार विदेशस्थ पति बाली पलीको पुरोहित की सहायता से अग्निहोत्र के नेयमिक कर्तव्य, आवश्यक इष्टियाँ एवं पितृयज्ञ करने चाहिए, किन्तु सोमयश नहीं करना चाहिए।"
स्मति-ग्रन्थों में पत्नियों की पति-मक्ति एवं नियमों के पालन आदि के विषय में बहत विस्तार पाया जाता है। मनु (९।२९-३०, ५।१६५ एवं १६४) का कथन है.---"जो पत्नी विचार, शब्द एवं कार्य से पति के प्रति सत्य रहती है वह पति के साथ स्वर्गिक लोकों को प्राप्त करती है और साध्वी (पतिव्रता) कहीं जाती है; जो पति के प्रति असत्य रहती है, वह निन्दा की पात्र होती है, आगे के जन्म में सियारिन के रूप में उत्पन्न होती है और भयंकर रोगों से पीड़ित रहती है।" यही बात याज्ञवल्क्य (११७५ से ८७) ने कुछ दूसरे ढंग से कही है। बृहस्पति ने पतिव्रता की परिभाषा यों की है-"(वही स्त्री पतिव्रता है जो) पति के आर्त होने पर आर्त होती है, प्रसन्न होने पर प्रसन्न होती है, पति के विदेश गमन पर मलिन वेश धारण करती और दुर्बल हो जाती है एवं पति के मरो पर १६ जाती है।"
१६. अमन रोहना र मान माल्यामुवनम् । प्रसाधनं व निष्क्रान्ते नाभिनवामि भरि ॥ अनुशासनपर्व १२३॥१७॥
विवर्षपीनवदना देहसंस्कारवाना। पलिकता निराहार शोष्यर प्रोपिते पतौ ॥ व्यासत्यति २०५२।
अतोऽग्निहोत्रं नित्येष्टिः पितृपम प्रसि जयम् : कर्तब्ध प्रोविते परो नान्यायामिन्यिाषितम् ॥ त्रिकाण्डमण्डन (१९८२)।
१७. माता मुपित हटा घोषिते मलिना कृशाः मते त्रिपेत या त्यो सास्त्री या पतिपता। बृहस्पति, इसे भरा ने '१० १०९ में पितासरा (यामपन्यय २।८६ ने हारीत का वचन कहकर) उद्धृत किया है।
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