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________________ ३१८ धर्मशास्त्र का इतिहास सभी स्थानों पर ऋग्वेद ने पुत्रोत्पत्ति की चर्चा चलायी है (ऋग्वेद १।९१।२० १।९२।१३, ३।१।२३ आदि) । मनु (६)३५ ) ने लिखा है कि बिना तीनों ऋणों से मुक्त हुए किसी को मोक्ष की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। ज्येष्ठ पुत्र के जन्म लेने से ही पितृऋण से छुटकारा मिल जाता है । इस विषय में देखिए मनु (९।१३७), वसिष्ठ ० ( १७/५), विष्णु ० ( १५।४६), मनु (९।१३२), आदि-पर्व (१२९/१४), विष्णुघ० (१५१४४) । पुत्र संज्ञा इसीलिए विख्यात है कि वह (पुत्र) अपने पिता की पुत् नामक नरक से रक्षा करता है। निरुक्त ( २।२ ) ने पुत्र की व्युत्पत्ति इसी अर्थ में की है। इसके अतिरिक्त पितरों को तर्पण एवं पिण्ड देने की चर्चा बड़े ही महत्वपूर्ण ढंग से हुई है। विष्णुधर्मसूत्र ( ८५/७०), वनपर्व ( ८४ /९७ ) एवं मत्स्यपुराण (२०७/३९) में आया है - "व्यक्ति को कई पुत्रों की आशा रखनी चाहिए, जिनमें से एक तो गया में ( श्राद्ध करने) अवश्य जायगा ।" उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट हो जाता है कि पत्नी अपने पति को दो ऋणों से मुक्त करती है - ( १ ) यज्ञ में साथ देकर देवऋण से तथा ( २ ) पुत्रोत्पत्ति कर पितृऋण से । अतः प्रत्येक नारी का ध्येय हो जाता है विवाह करके सन्तानोत्पत्ति करना । पुत्रहीन स्त्री निर्ऋति वाली (अभागी) होती है (शतपथब्राह्मण ५/३/२/२ ) । इस विषय में और देखिए मनु ( ९/९६ ) एवं नारद ( स्त्रीपुंस, १९ ) । पत्नी के कर्तव्य के विषय में स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों में पर्याप्त चर्चाएँ हुई हैं। सबको विस्तार से यहाँ उपस्थित करना कठिन है। बहुत ही संक्षेप में कुछ प्रमुख बातें यहाँ उल्लिखित होंगी। इस विषय में सभी धर्मशास्त्रकार एकमत हैं कि पत्नी का सर्वप्रमुख कर्तव्य है पति की आज्ञा मानना एवं उसे देवता की भाँति सम्मान देना । जब राजकुमारी सुकन्या का विवाह बूढ़े एवं जीर्ण-शीर्ण ऋषि च्यवन से हो गया ( सुकन्या के भाइयों ने च्यवन का अपमान किया था ) तो उसने कहा -- “मैं अपने पति को, जिन्हें मेरे पिता ने मेरे पति के रूप में चुना है, उनके जीते-जी नहीं छोड़ सकती" (शतपथ ब्राह्मण, ६।१।५।९ ) । शंखलिखित के मत से पत्नी को चाहिए कि वह अपने नपुंसक, कोषवृद्धि-ग्रस्त, पतित, अंग के अधूरे, रोगी पति को न छोड़े, क्योंकि पति ही पत्नी का देवता है। यही बात कुछ अन्तर के साथ मनु (५।१५४), याज्ञवल्क्य (१।७७), रामायण (अयोध्याकाण्ड २४ । २६-२७), महाभारत (अनुशासनपर्व १४६ ५५, आश्वमेधिकपर्व ९०।९१, शान्तिपर्व १४८।६-७ ), मत्स्यपुराण (२१०।१८), कालिदास ( शा० ५) आदि में पायी जाती हैं। मनु (५/१५० -१५६), याज्ञवल्क्य ( १।८३-८७ ), विष्णुधर्म सूत्र ( २५/२), वनपर्व ( २३३।१९-५८), अनुशासनपर्व ( १२३), व्यासस्मृति ( २।२०- ३२), वृद्ध हारीत (१९८४), स्मृतिचन्द्रिका ( व्यवहार० पृ० २४१), मदनपारिजात ( पृ० १९२ - १९५ ) तथा अन्य निबन्धों ने पत्नियों के कर्तव्य के विषय में विस्तार के साथ विवेचन किया है । कुछ कर्तव्यों का वर्णन नीचे दिया जाता है । पत्नी को सदा हँसमुख, जागरूक, दक्ष, कुशल गृहिणी, बरतनों, पात्रों आदि को स्वच्छ रखनेवाली एवं मितव्ययी होना चाहिए ( मनु ५।१५० ) । मनु ने पत्नी के ऊपर निम्न कार्य छोड़े हैं- -धन सँजोना, व्यय करना, वस्तुओं को स्वच्छ एवं तरतीब से रखना, धार्मिक कृत्य करना, भोजन पकाना तथा सभी प्रकार के गृह सम्बन्धी कार्य करना - धरना ( मनु ९।११)। मनु (९।१३) के अनुसार आसव पीना, दुष्ट प्रकृति के लोगों के साथ रहना, पति से दूर रहना, दूर-दूर ( तीर्थयात्रा में या कहीं ) घूमना, दिन में सोना, अजनवी के घर में रह जाना- ये छः दोष विवाहित नारियों को चौपट कर डालते हैं। आदिपर्व ( ७४ । १२) एवं शाकुन्तल (५/१७) में पति से दूर रहने को बहुत बुरा कहा गया है। यही बात मार्कण्डेयपुराण में भी पायी जाती है (७७/१९) । याज्ञवल्क्य ( १।८३ एवं ८७ ) के अनुसार पत्नी के ये कर्तव्य हैं--घर के बरतन, कुर्सी आदि को उसके उचित स्थान पर रखना, दक्ष होना, हँसमुख रहना, मितव्ययी होना, पति के मन के योग्य कार्य करना, श्वशुर एवं सास के पैर दबाना, सुन्दर ढंग से चलना-फिरना एवं अपनी इन्द्रियों को वश में रखना । शंख ने निम्नलिखित बातें कही हैं- बिना पति या बड़ों की आज्ञा के घर के बाहर न जाना, बिना दुपट्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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