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________________ पति-पत्नी के अधिकार और कर्तव्य १६८, याज्ञवल्क्य ११८९) । तैत्तिरीय संहिता (३७.१) के अनुसार रजस्वला पत्नी वाले पति द्वारा सम्पन्न यात्रा केवल आधा ही फल देता था, क्योंकि वह उस स्थिति में पति के साथ बैठकर यज्ञ नहीं कर सकती थी। फिन्तु पली बिना पति के तथा बिना उराकी आज के सातन्त्र रूप से कोई धार्मिक कृत्य सम्पादित नहीं कर सकती धी (मनु ५।१५५ विष्णुधर्मसूत्र २५।२५) । यहाँ तक कह दिया है कि विवाह के पूर्व पिता की आज्ञा बिना या विवाहोपरान्त पति या पुत्र की आज्ञा बिता भी जो कुछ आध्यात्मिक लाभ के लिए करती है, वह सब निष्फल जाता है (व्यवहारमयूख, पृ० ११३ में उद्धृत, देखिए व्यासस्मृति २।१९)। यदि किसी की कई पत्नियाँ होती थी तो उनमें सदको समान अधिकार नहीं थे। विष्णुधर्मसूत्र (२६।१-४) ने इस गिता में नियम बतलाये हैं। यदि सभी पत्नियाँ पका ही वर्ण की हों, तो उनमें सबसे पहले जिससे विवाह हुआ हो उसी के साथ धार्मिक कृत्य किये जाते हैं, यदि कई खाकी पलियाँ हों (जब अन्तर्जातीय विवाह वैध थे), तो पति के वर्ण वाली पत्नी को प्रधानता दी जाती थी, भले ही उसका विवाह बाद हो। यदि अपने वर्ण की पत्नी न हो तो अपने से बाद वाली जाति की पत्नी को अधिकार प्राप्त होते थे, किन्तु द्विजाति को शूद्र पत्नी के साथ कमी भी वाभिक कृत्य नहीं करना चाहिए। इस विषय में देखिए मदनपारिजात (पृ० १३४) । वसिष्ठधर्मसूत्र (१८११८) ने का है--"कावे वर्ण वाली (शूद्र)नारी केवल आमोद-प्रमोद के लिए है, न कि धार्मिक कृत्यों के लिए।" ऐसी ही बात गोभिल. स्मृति (१११०३-४), विष्णुधर्मसूत्र, याज्ञवल्क्य (१९८८) एवं सस्मृति (२।१२) में भी पायी जाती है। याज्ञवल्क्य की व्याख्या में विश्वरूप ने लिखा है कि यद्यपि धामिक कृत्यों में ज्येष्ठ पत्नी को ही अधिकार प्राप्त है, किन्तु शूद्र पत्नी को छोड़कर सभी पत्नियाँ श्रीत अग्नि द्वारा जलायी जा सकती हैं (स्मृतिचन्द्रिका १,१० १६५)। त्रिकाण्डमण्डन (१।४३-४४) ने बहुत स्त्रियों के रहने पर तीन मतों की चर्चा की है-"(१) सभी पत्नियाँ धार्मिक कृत्यो पति का साथ दे सकती हैं, (२) केवल सवर्ण ज्येष्ठ पत्नी ही ऐसा कर सकती है तथा (३) केवल आमो ... के लिए विवाहित पत्नी के साथ पति धार्मिक कृत्य नहीं कर सकता।" मनु (९।८६-८७) के मत से अपने वर्ण वाली पत्नी को सदैव प्रमुखता मिलनी चाहिए, किन्तु सवर्ण पत्नी के रहते यदि कोई वाण किसी अन्य जाति वाली पत्नी से धार्मिक कृत्य कराता है तो वह चाण्डाल हो जाता है। अति प्राचीन काल से विश्वास की धाराओं में एक पारा यह थी कि व्यक्ति तीन ऋणों के साथ जन्म लेता है; ऋषि-ऋण, देव-ऋण एवं पितृ-श्रण और इन ऋणों से वह कम से ब्रह्मचर्य (सात्र-जीवन द्वारा, यज्ञ करके एवं सन्तानो त्पत्ति करके उऋण होता है। ऋग्वेद (५।४।१०) में प्रार्थना (प्रजामिरग्ने अमृतत्वममाम्)आती है---"मैं सन्तान के द्वारा अमरता प्राप्त करूँ।" वसिष्ठधर्म सूत्र (१७।१-४) ने तैत्तिरीय संहिता, ऐतरेय ब्राह्मण एवं ऋग्वेद की एतत्सम्बन्धी सभी उक्तियाँ उद्धृत की हैं । ऋग्वेद (१०८५।४५) ने नवविवाहित दुलहिन को १० पुत्रों के लिए आशीर्वाद दिया है। १२. सवर्गासु बहुभार्यासु विद्यमानासु ज्येष्ठया सह धर्मकार्य तुर्यात् । मिश्रासु च कनिष्ठयापि समानवर्णया समानवाया अभावे स्वनन्तरयवापवि च । न त्वेव द्विजः शूया। विनुष० (२६।२४)। १३. जायमानो ब्राह्मणस्त्रिभित्रणवां जायते। ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यमेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः। एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी। ते० सं० ६।३।१०।५ पूर्ण ह व जायते योऽस्ति। स जायमान एव देवेभ्य ऋषिभ्यः पितृम्यो मनुष्येभ्यः। शतपय ब्राह्मण १।७।२।११, मस्मिन्संनयत्यमृतत्वं च गच्छति। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्छज्जीवतो मुखम्।...नापुत्रस्य लोकोऽस्तिति तत्सर्वे पशवो विदुः। ऐ० ब्रा० ३३॥१, वसिष्ठधर्म० (१९४७) ने प्रथम उक्ति उत्त की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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