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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास मन के बना दो तो वे अच्छे मित्र की भाँति तुम्हें घृत का लेप करेंगे।" तैत्तिरीय ब्राह्मण (३७५) में आया है"सत्कर्मों द्वारा पति एवं पत्नी एक-दूसरे से युक्त हो जायें, हल में बैलों की भाँति उन्हें यश में जुट जाना चाहिए; वे दोनों एक मन के हों और शत्रुओं का नाश करें; वे स्वर्ग में न घटने वाली (अजर) ज्योति प्राप्त करें।" यही बात कुछ अन्तरों के साथ काठक संहिता (५।४) में भी पायी जाती है और शबर ने जैमिनि (६३११२१) की व्याख्या में इसको आधार बनाया है। इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि कर्तव्यों का प्रतिफल पति-पत्नी साथ ही भोगते थे। पत्नी अश्वमेध में घोड़े को लेप करती है (ले० प्रा० ३।८।४) तधा विवाह के साए अग्नि में लावा की आहुति देती है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२०६।१३।१६-१८) के अनुसार विद होपरान्त पति एक पत्नी पाक करता साथ करते हैं, पुण्यफल में समान भाग पाते है, धन-सम्पत्ति में समान भाग रखते हैं तथा पती पति कोधिलि में अक्सर पड़ने पर भेट आदि दे सकती है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१५८।५) के अनुसार पत्नी को पति जी अनुस्थिति में गृह की बहन की पूजा (अग्निहोत्र) करनी पड़ती थी और उसके बुझ जाने पर उसे उपवास करना पड़ता था; वह सन्ध्याकाल के होम में आहुति वे. साथ "अग्नये स्वाहा”, प्रातःकाल की आहुति के साथ "सूर्याय स्वाहा" कहती थी और दोनों कालों में मौन रूप से एक आहुति प्रजापति को देती थी। इस विषय में अन्य विचार देखिए गौतम० (५।६-८), गोभिलग (१।४।१६-१९) एवं आपस्तम्बगृ० (८१३-४) । मनु (३।१२१) के मत से सन्ध्या काल के पके हुए भोजन की आहुतियाँ पत्नी द्वारा बिना मन्त्रों के दी जानी चाहिए। स्पष्ट है, यद्यपि मनु के समय में स्त्रियों को वैदिक मन्त्रों पर अधिकार नहीं दिया गया था, किन्तु वे धार्मिक कृत्य बिना किसी रोक के कर सकती थीं। यज्ञों में पत्नी को निम्न कार्य करने पड़ते थे--(१) स्थालीपाक (हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र ११२३॥३) में अन्न को छाँटना अर्थात् भूसी-रहित, साफ करना, (२) उपस्कृत पशु को धोना (शतपथब्रा० ३।८।२ एवं गोभिल० ३।१०।२९), (३) श्रीत यज्ञों में आज्य की ओर देखना। पूर्व मीमांसा (६।१।१७-२१) में ऐसा आया है कि जहाँ तक सम्भव हो पति-पत्नी धार्मिक कृत्य साथ करें, किन्तु पति साधारणत: भकेला.सभी कार्य कर लेता है, और पत्नी ब्रह्मचर्य व्रत, कल्याणप्रद अथवा आशीर्वचन आदि करती है। धार्मिक कृत्य सामान्यतः पति-पत्नी साथ ही करते हैं, इसी से राम को यज्ञ करते समय सीता की स्वगाम मूर्ति पास में रखनी पड़ी थी (रामायण ७।९१।२५) । पाणिनि (४।१।३३) ने 'पत्नी' शब्द की व्युत्पत्ति करके बताया है कि उसी को पत्नी कहा जाता है जो यज्ञ तथा यज्ञ करने के फल की भागी होती है। इससे स्पष्ट विदित है कि जो स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ यज्ञों में भाग नहीं लेती थीं, उन्हें जाया या भार्या (पत्नी नहीं) कहा जाता था। महाभाष्य के अनुसार किसी शद्र की स्त्री केवल सादश्य भाव से ही उसकी पत्नी कही जाती है (क्योंकि शद्र को यज्ञ करने का अधिकार नहीं, उसकी भार्या की तो बात ही क्या है)। स्त्रियों का यज्ञों से सन्निकट साहचर्य होने के कारण ही यदि वे पति के पूर्व मर जाती थीं तो उनका शरीर पवित्र अग्नि से यज्ञ के सारे उपकरणों एवं बरतनों (पात्रों) के साथ जलाया जाता था (मनु ५।१६७ ९. संजानाना उपसीदन्नभिजु पत्नीवन्तो नमस्यं नमस्यन् । ऋ० ११७२१५; अञ्जन्ति मित्रं सुधितं न गोभिर्यद् बम्पती समनसा कृणोषि । ऋ० ५।३।२; स पत्नी पत्या सुकृतेन गच्छताम् । यज्ञस्य युक्तौ पुर्यावभूताम्। संजानाना विजहतामरातीः। दिवि ज्योतिरजरमारभेताम् । त० बा० ३७५ । १०. जायापत्योर्न विभागो विद्यते। पाणिग्रहणादि सहत्वं कर्मसु । तथा पुण्यफलेषु द्रव्यपरिग्रहेषु च । आप प. (२०६।१३।१६-१८)। ११. पत्युनों यज्ञसंयोगे। पाणिनि ४।१।३३; 'एवमपि तुपजकस्य पत्नीति न सिम्यति । उपमानात्सिवम् । पत्नीवत्पानीति।' महाभाष्य, जिल्द २, पृ० २१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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