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बहुपतित्व एवं विवाह के उद्देश्य
३१५ जुलती थी और महाभारत ने उन्हें आलंकारिक रूप से एक ही द्रौपदी के रूप में रख दिया है। वास्तव में पांच द्रौपदियां थीं, जिनमें प्रत्येक प्रत्येक पाण्डव से विवाहित हुई थी।
धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में बहुभर्तुकता संबंधी व्यावहारिकता की ओर कुछ संकेत मिल जाते हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।१०।२७।२-४) का कथन है-"(नियोग द्वारा पुत्र के लिए) अपनी स्त्री को किसी अन्य व्यक्ति को नहीं, प्रत्युत अपने सगोत्र को ही देना चाहिए, क्योंकि कन्या का दान भाइयों के सारे कुटुम्ब को, न कि केवल एक भाई को, किया जाता है ; पुरुषों के ज्ञान की दुर्बलता के कारण (नियोग) वर्जित है।" बृहस्पति का कथन है--"कुछ देशों में एक अत्यन्त घृणास्पद बात यह है कि लोग भाई की मृत्यु के उपरान्त उसकी विधवा से विवाह कर लेते हैं ; यह भी घृणास्पद है कि एक कन्या पूरे कुटुम्ब को दे दी जाती है। इसी प्रकार फारस वालों (पारसीकों) में लोग माता से भी विवाह कर लेते हैं।" डा० जाली का यह कथन कि दक्षिण में बहुभर्तृकता पायी जाती थी, सर्वथा निराधार है। डा० जाली ने बृहस्पति के नयन को कई भागों में करके व्याख्या नहीं की है। वास्तव में दक्षिण में, 'मातुलकन्या'...से ही विवाह की चर्चा मात्र सिद्ध होती है, और अन्य बातें अन्य देशों की हैं। प्रो० कीथ ने डा० जाली की ही भ्रमात्मक व्याख्या मान ली है।
बहुभर्तृकता के दो स्वरूप हैं-(१) मातृपक्षीय (जब कोई स्त्री किन्हीं दो या अधिक व्यक्तियों से सम्बन्ध जोड़ती है, जो एक-दूसरे से सम्बन्धित नहीं भी हों और कुल का क्रम स्त्री से ही चलता हो) तथा (२) भ्रातृपक्षीय (जिसमें एक नारी कई भाइयों की पत्नी हो जाती है)। प्रथम प्रकार की प्रथा मलावार तट के नायर-कुलों में पायी जाती थी, किन्तु अब वहाँ ऐसी बात नहीं है। किन्तु दूसरे प्रकार की प्रथा अब भी कुमायूं, गढ़वाल तथा हिमालय के प्रान्तों में आसाम तक पायी जाती रही है। पण्डित भगवानलाल इन्द्रजी (इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ८, पृ० ८८) का कहना है कि टोंस एवं यमुना के बीच कालसी, कुमायूं आदि की ओर कई वर्गों के लोग बहु-मर्तृकता के अनुगामी हैं और उससे उत्पन्न पुत्र को जीवित ज्येष्ठ माई से उत्पन्न पुत्र मानते हैं। महाभारत के टीकाकार नीलकण्ठ ने अपने समय की नीच जातियों में बहु-भर्तृकता के प्रचलन की बात लिखी है (आदिपर्व १०४।३५) पर नीलकण्ठ)।
पति एवं पत्नी के पारस्परिक अधिकार एवं कर्तव्य मनु (९।१०१-१०२) ने पति-पत्नी के धर्मों की चर्चा संक्षेप में यों की है-"उन्हें (धर्म, अर्थ एवं काम के विषय में) एक-दूसरे के प्रति सत्य रहना चाहिए, और सदा यही प्रयत्न करना चाहिए कि वे कभी भी अलग न हो सकें..." नीचे हम उनके सभी प्रकार के अधिकारों एवं कर्तव्यों की चर्चा क्रमानुसार करेंगे।
पति का प्रथम कर्तव्य तथा पत्नी का प्रथम अधिकार है क्रम से धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित होने देना तथा होना। यह बात अति प्राचीन काल से पायी जाती रही है। ऋग्वेद (११७२।५) में आया है--"अपनी पत्नियों के साथ उन्होंने पूजा के योग्य अग्नि की पूजा की।" एक अन्य स्थान (ऋ० ५।३।२) पर आया है-“यदि तुम पति एवं पत्नी को एक
७. अथवा बहर एव ताः सदृशल्पा द्रौपथ एकत्वेनोपचरिता इति व्यवहारार्थापत्त्या गम्यते ॥ तन्त्रवातिय, पृ० २०९।
८. विरुवाः प्रतिदृश्यन्ते वाक्षिणात्येषु संप्रति । स्वमातुलसुतोद्वाहो मातृबन्धुत्वदूषितः ॥ अभर्तृकभ्रातृभायोग्रहणं चातिदूषितम् । कुले कन्याप्रदानं च वेशेष्वन्येषु दृश्यते। तथा मातृविवाहोपि पारसीकेषु दृश्यते ॥ बृहस्पति (स्मृबिचन्द्रिका १, पृ० १०, स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम, पृ० १३०)।
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