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. धर्मशास्त्र का इतिहास विशिष्ट कुल थे, जिनमें कन्याओं का विवाह कर देना श्रेयस्कर माना जाता था, अतः इसके फलस्वरूप एक-एक कुलीन व्यक्ति की अगणित पलियाँ थीं, जिनमें कुछ तो अपने पति का दर्शन भी नहीं कर पाती थीं।
स्त्रियों के प्रति यह सामाजिक दुर्व्यवहार क्यों? इसके कई कारण थे--(१) पुत्रों की अत्यधिक आध्यात्मिक महत्ता, (२) बाल-विवाह एवं उसके फलस्वरूप (३) स्त्रियों की अशिक्षा, (४) स्त्रियों को अपवित्र मानने की प्रथा का क्रमशः विकास एवं (२) उन्हें शूद्रों के समान मानना तथा (६) स्त्रियों की पुरुषों पर पूर्ण आश्रितता।
___ यद्यपि बहुपत्नीकता सिद्धान्त रूप से विद्यमान थी, किन्तु व्यवहार में बहुधा लोग प्रथम पत्नी की उपस्थिति में दूसरा विवाह नहीं करते थे। १९वीं शताब्दी के प्रथम चरण में स्टील ने अपनी पुस्तक 'ला एण्ड कस्टम आव हिन्दू कास्ट्स' में यही बात सिद्ध की है। आधुनिक काल में हिन्दू समाज में नये कानून के अनुसार एक-पत्नीकता को गौरव प्राप्त हो गया है।
वहुभर्तृकता तैत्तिरीय संहिता (६।६।४।३, ६।५।१।४) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (१२।११) के मत से स्पष्ट विदित है कि उनके प्रणयन-कालों एवं उनके पूर्व बहुमर्तृकता का कहीं नाम भी नहीं था। “एक यूप में वह दो मेखलाएँ बाँधता है, इसी प्रकार एक पुरुष दो पत्नियाँ प्राप्त करता है; वह दो यूपों के चदुर्दिक एक ही मेखला नहीं बाँधता, इसी प्रकार एक पत्नी दो पति नहीं प्राप्त करती" (तै० सं० ६।६।४।३) । ऐतरेय ब्राह्मण (१२।११) ने लिखा है--"अतः एक पुरुष की कई पलियाँ हैं, किन्तु एक पत्नी के एक ही साथ कई पति नहीं हैं।" हमें कोई भी ऐसी वैदिक उक्ति नहीं मिलती जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उन दिनों बहुमर्तृकता पायी जाती थी। संस्कृत-साहित्य में सर्वप्रसिद्ध उदा. हरण है द्रौपदी का, जो पाँच पाण्डवों की पत्नी थी। महाभारत ने स्पष्ट लिखा है कि जब अन्य लोगों को यह बात ज्ञात हुई कि युधिष्ठिर ने द्रौपदी को सभी पाण्डवों की पत्नी मान लिया है, तो वे सभी चकित हो उठे थे। धृष्टद्युम्न (आदिपर्व २९५।२७-२९) ने युधिष्ठिर को बहुत समझाया, किन्तु युधिष्ठिर टस-से-मस नहीं हुए और कहा--"ऐसा कार्य पहले भी होता था और हम पाण्डदों में यह तय है कि हममें जो भी जो कुछ प्राप्त करेगा, वह सबको बराबर भाग में मिलेगा। इस विषय में युधिष्ठिर ने केवल दो उदाहरण दिये-(१) जटिला गौतमी सप्तषियों की पत्नी थी तथा (२) सभी दस प्राचेतस माई वाी के पति थे। ये गाथाएँ कोई ऐतिहासिकता नहीं रखतीं। तन्त्रवातिक में कुमारिल भट्ट ने द्रौपदी के सम्बन्ध में तीन व्याख्याएँ उपस्थित की हैं। एक व्याख्या के अनुसार कई द्रौपदियां थीं जो एक-दूसरी से मिलती
५. यदेकस्मिन्यूपे द्वे रशने परिव्ययति तस्मादेको जाये विन्दते यन्नेकां रशनांद्वयो£पयोः परिव्ययति तस्माग्नका नौ पती विन्दते । तै० सं० ६६६।४।३; और देखिए तै० सं० ६।५।१४ तस्मादेको बह्वोर्जाया विन्दते; तस्मादेकस्य बह्वयो जाया भवन्ति नैकस्यै बहयः सहपतयः । ऐ० वा० १२।११।
६. एकस्य बह्वयो विहिता महिष्यः कुरुनन्दन । नेकस्या बहवः पुंसः भूगन्ते पतयः क्वचित् ॥ लोकवेर रुखं त्वं माधम धर्मविच्छुचिः। कर्तुमर्हसि कौन्तेय कस्मात्ते बुखिरीदृशी॥ आदिपर्व १९५।२७-२९; सभापर्व (६८१३५) में कर्ण ने द्रौपदी को बन्धकी (वेश्या) माना है, क्योंकि उसे कई पुरुष पति के रूप में प्राप्त थे। आदिपर्व (१९६) में षिष्ठिर ने उत्तर दिया है-"सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विशो वयं गतिम् । पूर्वेषामानुपूर्येण यातं मामनियामहे ॥"
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