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________________ हुपत्नीत्व ३१३ जिन्हें ब्रह्मा, उद्गाता, होता ने क्रम से महिषी, वावाता एवं परिवृक्ता के सम्बोधन के लिए प्रयुक्त किया है। हरिश्चन्द्र की एक सौ पत्नियां थीं (ऐतरेय ब्राह्मण ३३|१) । बहुपत्नीकता केवल राजाओं एवं तथाकथित मग पुरुषों तक ही सीमित नहीं थी; प्रसिद्ध दार्शनिक याज्ञवल्क्य की दो पत्नियों में कात्यायनी मौतिक सुख की इच्छा रखनेवाली तथा मैत्रेयी ब्रह्मज्ञान एवं अमरता की इच्छुक थी ( बृहदारण्यकोपनिषद् ५।५।१-२ एवं २।४।१) । सूत्रकाल के कुछ ऋषियों ने आदर्श की बात कही है। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।५।११।१२-१३) के अनुसार धर्म एवं सन्तति से युक्त एक ही पत्नी यथेष्ट है, किन्तु धर्म एवं सन्तान में एक के अभाव में उसकी पूर्ति के लिए एक अन्य पत्नी भी की जा सकती है। एक अन्य स्थान पर इस सूत्र ( १|१०|२८|१९ ) ने लिखा है कि यदि कोई अपनी निर्दोष पत्नी का त्याग करता है तो उसे गधे की खाल (जिसका बाल वाला भाग ऊपर हो) ओढ़कर छः महीनों तक सात, घरों में भिक्षा मांगनी चाहिए।' यही बात नारद ने भी कुछ हेर-फेर के साथ कही है-यदि पत्नी अनुकूल, मधुरभाषी, दक्ष, साध्वी एवं प्रजावती (पुत्र वाली) हो और उसे उसका पति त्याग दे तो राजा ऐसे दुष्ट पति को दण्डित कर ठीक कर दे (नारद-स्त्रीपुंस, ९५) । कौटिल्य ( ३।२ ) ने भी लिखा है कि पति को प्रथम सन्तानोत्पत्ति के उपरान्त यदि सन्तान न हो तो ८ वर्ष तक जोहकर ही पुनर्विवाह करना चाहिए। यदि मृत बच्चे ही उत्पन्न हों तो १० वर्ष जोहकर तथा यदि पुत्रियाँ ही उत्पन्न हों तो १२ वर्ष जोहकर पुनर्विवाह करना चाहिए। किन्तु यदि पति इन नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे पत्नी को स्त्रीघन तथा भरण-पोषण के लिए धन देना चाहिए और राजा को २४ पण का घनदण्ड देना चाहिए। यह तो कौटिल्य का आदर्श वाक्य मात्र है, क्योंकि उन्होंने पुनः लिखा है - " एक व्यक्ति कई पत्नियों से विवाह कर सकता है, किन्तु उस पत्नी को, जिसे स्त्रीघन या कोई धन विवाह के समय न मिला हो, उसे शुल्क दे देन। होगा, जिससे कि वह अपना भरण-पोषण कर सके...।" मनु ( ५/८० ) एवं याज्ञवल्क्य ( ११८० ) ने लिखा है कि यदि पत्नी मदिरा पीती हो, किसी पुराने रोग से पीड़ित रहती हो, धोखेबाज हो, खर्चीली हो, कटुभाषी हो और केवल पुत्रियाँ ही जनती हो तो पति दूसरा विवाह कर सकता है। मनु (५।८१) एवं बौधायन - धर्म ० ( २/२/६५ ) के मतानुसार कटुवादिनी पत्नी का त्याग कर दूसरा विवाह किया जा सकता है। चण्डेश्वर ने अपने गृहस्थरत्नाकर में देवल को उद्धृत करते हुए कहा है कि शुद्ध एक से, वैश्य दो से, क्षत्रिय तीन से, ब्राह्मण चार से तथा राजा जितनी चाहे उतनी स्त्रियों से विवाह कर सकता है। आदिपर्व (१६०।३६) ने गम्भीरतापूर्वक लिखा है- " कई पत्नियाँ रखना कोई अधर्म नहीं है, किन्तु स्त्रियों के लिए प्रथम पति के प्रति अपने कर्तव्य न करना अधर्म है।"" महाभारत (मौसल पर्व ५/६ ) के अनुसार वासुदेव ( श्री कृष्ण ) की १६ सहस्र पत्नियां थीं । ऐतिहासिक युगों में बहुत-से राजाओं की एक-एक सौ रानियाँ थीं । चेदिराज गांगेयदेव उर्फ विक्रमादित्य ने प्रयाग में अपनी सौ पत्नियों के साथ मुक्ति पायी (देखिए एपिफिया इण्डिका, जिल्द २, पृ० ४ एवं वही, जिल्द १२, पृ० २०५ ) । बंगाल के कुलीनवाद की निन्द्य कथाएँ सर्वविदित हैं। कुछ ऐसे ३. धर्मप्रजासम्पन्ने वारे नान्यां कुर्वीत । अन्यतराभावे कार्या प्रागग्न्याधेयात् । अप० ० २।५।११।१२-१३; लराजिनं महिलोंम परिषाय दारव्यतिक्रमणे भिक्षामिति सप्तागाराणि खरेत् । सा वृतिः वच्मासान् । आप० ष० १|१०|२८|१९; बेलिए बृहत्संहिता (७४११३), जिसमें यही प्रायश्चित लिखा हुआ है किन्तु यह भी किया हुआ है कि पुरुष लोग यह प्रायश्चित करत नहीं। 'अनुकूलामवाग्दुष्टां दक्ष साध्वीं प्रजावतीम् । त्यजन् भार्यामवस्थाप्यो रम दण्डेन भूयसा ॥' नारव (स्त्रीपुंस, १५) । ४. न चाप्यधर्मः कल्याण बहुपत्नीकता नृणाम्। स्त्रीणामधर्मः सुमहान्भर्तुः पूर्वस्य लंघने ।। आदिपर्व १६०२३६ । धर्म० ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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