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________________ विवाह के प्रकार २९७ उपस्थित करेंगे (मनु ३।२७-३४)। जिस विवाह में बहुमूल्य अलंकारों एवं परिधानों से सुसज्जित, रत्नों से मंडित कन्या वेद-पण्डित एवं सुचरित्र व्यक्ति को निमन्त्रित कर (पिता द्वारा) दी जाती है, उसे ब्राह्म कहते हैं। जब पिता अलंकृत एवं सुसज्जित कन्या किसी पुरोहित को (जो यज्ञ करता-कराता है) यज्ञ करते समय दे, तो उस विवाह को दैव कहा जाता है। यदि एक जोड़ा पशु (एक गाय, एक बैल) या दो जोड़ा पशु लेकर (केवल नियम के पालन हेतु न कि कन्या के विक्रय के रूप में) कन्या दी जाय तो इसे आर्ष विवाह कहते हैं। जब पिता वर और कन्या को “तुम शेनों साथ-ही-साथ धार्मिक कृत्य करना" यह कहकर तथा वर को मधुपर्क आदि से सम्मानित कर कन्यादान करता है तो उसे प्राजापत्य कहा जाता है। याज्ञवल्क्य इसे 'काय' की संज्ञा देते हैं, क्योंकि ब्राह्मण-ग्रन्थों में 'क' का तात्पर्य है 'प्रजापति'। जब वर अपनी शक्ति के अनुरूप कन्यापक्ष वालों तथा कन्या को धन दे देता है, तब इस प्रकार अपनी इच्छा के अनुकूल पिता द्वारा दत्त कन्या के विवाह को आसुर विवाह कहते हैं। वर एवं कन्या की परस्पर सम्मति से जो प्रेम की भावना के उद्रेक का प्रतिफल हो तथा सम्भोग जिसका उद्देश्य हो, उस विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है। सम्बन्धियों को मारकर, घायल कर, घर-द्वार तोड़-फोड़कर जब रोती बिलखती हुई कन्या को बलवश छीन लिया जाता है तो इस प्रकार से प्राप्त कन्या के सम्बन्ध को राक्षस विवाह कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति चुपके से किसी सोयी हुई, उन्मत्त या अचेत कन्या से सम्भोग करता है तो इसे निकृष्ट एवं महापातकी कार्य कहा जाता है और इसे पैशाच विवाह कहते हैं। प्रथम चार प्रकारों में पिता द्वारा या किसी अन्य अभिभावक द्वारा वर को कन्यादान किया जाता है। यहाँ 'दान' शब्द का प्रयोग गौण अर्थ में किया गया है, जिसका तात्पर्य है पिता के अभिभावकीय उत्तरदायित्व का भार तथा कन्या के नियन्त्रण का भार पति को दे दिया गया है। ब्राह्मणों में सभी प्रकार का दान जल के साथ किया जाता है (मनु ३१३५४ एवं गौतम ५।१६-१७)। उसी प्रकार प्रथम चार प्रकार के विवाहों में अलंकारों एवं परिधानों से सुसज्जित कन्या का दान किया जाता है। प्रथम प्रकार के विवाह को सम्भवतः ‘ब्राह्म' इसलिए कहा जाता है कि ब्रह्म का अर्थ है पवित्र वेद, या धर्म, जिसे परमपूत कहा जाता है (स्मृतिमुक्ताफल, भाग १, पृ० १४०) । 'आर्ष' प्रकार में वर से एक जोड़ा पशु लिया जाता है, अतः यह ब्राह्म से घटिया है। देव विवाह केवल ब्राह्मणों में ही पाया जाता था, क्योंकि पौरोहित्य का कार्य ब्राह्मण ही करता था। इसका नाम दैव इसलिए है कि यज्ञ में देवों की पूजा होती है। यह विवाह ब्राह्म से घटिया इसलिए है कि पिता कन्यादान कर अपने मन में इस लाभ की भावना रखता है कि उसका यज्ञ भली भाँति सम्पादित हो, क्योंकि कन्या पाकर प्रसन्न हो पुरोहित बड़े मन से यज्ञ में लगा रहेगा। विवाह के सभी प्रकारों में कन्या एवं वर को सभी धार्मिक कृत्य साथ-साथ करने पड़ते हैं (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।६।१२।१६-१८)। पत्नी-पति में कभी पृथक्त्व नहीं पाया जाता; पाणिग्रहग के उपरान्त वे सारे धार्मिक कृत्य साथ ही सम्पादित करते हैं। प्राजापत्य विवाह में पत्नी के जीते-जी पति को गृहस्थ रहने, संन्यासी न बनने, दूसरा विवाह न करने आदि का वचन देना पड़ता है। प्राजापत्य विवाह इसी से ब्राह्म से घटिया कहा जाता है, क्योंकि इसमें शर्त लगी रहती है, किन्तु ब्राह्म में स्वयं वर प्रतिवचन देता है कि धर्म, अर्थ एवं काम नामक तीन पुरुषार्थों में वह सदैव अपनी पत्नी के साथ रहेगा। १९. बौधायनधर्मसूत्र (१११११५) 'दक्षिणासु नीयमानास्वन्तर्वेदि ऋत्विजे स वैवः।' बौधायन के मत से कन्या यज की वक्षिणा का एक भाग हो जाती है। किन्तु वेदों एवं श्रौत सूत्रों में कन्या (बुलहिन) को कभी दक्षिणा नहीं कह गया है। मेधातिथि (मनु ३।२८) कन्या को यज्ञ कराने के शुल्क का भाग मानने को तैयार नहीं हैं। यही विश्वरूप का भी कहना है, किन्तु अपरार्क (पृ० ८९) के मत से कन्या शुल्क के रूप में दी जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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