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पूर्वा
मूल
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धर्मशास्त्र का इतिहास यदि वर एवं कन्या एक ही दल के नक्षत्रों में उत्पन्न हुए हों, उन्हें सर्वोत्तम माना जाता है। किन्तु यदि उनके जन्म के नक्षत्र दिभिन्न दलों में पड़ते हैं तो निम्न नियमों का पालन किया जाता है-यदि उनके नक्षत्र देवगण एवं मनुष्यगण में पड़ते हैं तो इसे मध्यम माना जाता है। यदि वर का नक्षत्र देवगण या राक्षसगण में पड़े, तो कन्या का मनुष्यगण में माना जाता है, किन्तु यदि कन्या का नक्षत्र राक्षसगण में पड़े और वर का मनुष्यगण में, तो मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार यदि वर एवं कन्या के नक्षत्र क्रम से देव एवं राक्षस गणों में पड़ें तो दोनों में झगड़ा होगा।
नाडी के लिए नक्षत्रों को आद्य नाडी, मध्य नाडी एवं अन्त्य नाडी में इस प्रकार विनाजित किया गया है-- आद्यनाडी मध्यनारी
अन्त्यनारी अश्विनी मरणी
कृत्तिका आर्द्रा मृगशिरा
रोहिणी पुनर्वसु पुष्य
आश्लेषा उत्तरा
मघा चित्रा
स्वाति ज्येष्ठा अनुराधा
विशाखा पूर्वाषाढा
उत्तराषाढा शततारका धनिष्ठा
श्रवण पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा
रेवती यदि वर एवं कन्या के नक्षत्र एक ही नांडी में पड़ें तो मृत्यु होती है, अतः विवाह नहीं करना चाहिए। इसलिए दोनों के जन्म-नक्षत्र भिन्न नाडियों में होने चाहिए।
____ कुछ लेखकों के अनुसार विवाह तय हो जाने पर यदि कोई सम्बन्धी मर जाय तो विवाह नहीं करना चाहिए। किन्तु शौनक ने इस विषय में कुछ छूट दी है। उनके मत से किसी भी सम्बन्धी के मरने से विवाह वर्जित नहीं माना जाता; केवल पिता, माता, पितामह, नाना, चाचा, भाई, अविवाहित बहिन के मरने से ही विवाह को प्रतिकूल माना जा सकता है।
यदि नान्दीश्राद्ध करने के पूर्व कन्या की मां या वर की मां ऋतुमती हो जाये तो विवाह टल जाता है और पाँचवें दिन सम्पादित हो सकता है।
विवाह-प्रकार-गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों एवं स्मृतियो क काल से ही विवाह आठ प्रकार के कहे गये हैं, यथा ब्राह्म, प्राजापत्य, आर्ष, दैव, गान्धर्व, आसुर, राक्षस एवं पैशाच (दे० आश्वलायनगृह्यसूत्र ११६, गौतम० ४।६-१३, बौधायनधर्मसूत्र १११, मनु ३।२१, आदिपर्व ७३।८-९, विष्णुधर्मसूत्र २४।१८-१९, याज्ञवल्क्य ११५८, नारद-स्त्रीपुंस, ३८-३९, कौटिल्य ३३१, ५९वा प्रकरण, आदिपर्व १०२।१२-१५)। इनमें से कुछ ग्रन्थों में प्रथम चार प्रकार विभिन्न ढंग से रखे गये हैं, यथा ब्राह्म, दैव, प्राजापत्य एवं आर्ष (आश्व०), ब्राह्म, देव आर्ष एवं प्राजापत्य (विष्णु०)। आश्वलायन ने पैशाच को राक्षस से पहले रखा है। मानवगृह्यसूत्र ने केवल ब्राह्म एवं शौल्क (अर्थात् आसुर) के ही नाम लिये हैं, सम्भवतः उनके समय ये दोनों प्रकार बहुत प्रचलित थे। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।११।१७-२०, २।५।१२।१-२) ने केवल छ: प्रकार बताये हैं और प्राजापत्य एवं पैशाच को छोड़ दिया है। वसिष्ठधर्मसूत्र ने ब्राह्म, दैव, आर्ष, गान्धर्व, क्षात्र एवं मानुष (अन्तिम दो क्रम से राक्षस एवं आसुर के सूचक हैं) नाम लिये हैं (१।२८-२९) । विभिन्न लेखकों द्वारा लिखे गये प्रकारों की अर्थविभिन्नता स्पष्ट करना सरल नहीं है। हम यहाँ मनु द्वारा कहे गये लक्षणों का वर्णन
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