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________________ २९८ धर्मशास्त्र का इतिहास आसुर विवाह में धन तथा धन के मूल्य का सौदा रहता है, अतः यह स्वीकृत नहीं माना जाता। आर्ष एवं आसुर में अन्तर यह है कि प्रथम में एक जोड़ा पशु देने की एक व्यावहारिक सीमा मात्र बांध दी गयी है, किन्तु द्वितीय में धन देने की कोई सीमा नहीं है। गांधर्व में पिता द्वारा दान की कोई बात नहीं है, प्रत्युत उस काल तक के लिए कन्या पिता को उसके अधिकार से वंचित कर देती है। प्राचीन काल में ऋषियों द्वारा विवाह एक संस्कार माना जाता था, इसके मुख्य उद्देश्य थे धार्मिक कृत्यों द्वारा सद्गुणों की प्राप्ति एव सन्तानोत्पत्ति। गान्धवं विवाह में केवल काम-पिपासा की शान्ति की बात प्रमुख है, अतः यह प्रथम चार प्रकारों से तुलना में निकृष्ट है और अस्वीकृत माना जाता है। इसका नाम गान्धर्व इसलिए है कि गन्धर्व कामातुर कहे गये हैं, जैसा कि तैत्तिरीय संहिता (६।११६५-स्त्रीकामा वै गन्धर्वाः) तथा ऐतरेय ब्राह्मण (५।१) का कथन है। हां, इस प्रकार के विवाह में कन्या की सम्मति ले ली गयी रहती है। राक्षस एवं पशाच में कन्यादान की बात उठती ही नहीं, दोनों में कन्यादान के विरोध की बात उठ सकती है। बलवश कन्या को उठा ले जाना (भले ही पिता डरकर लुटेरे से युद्ध न करे) राक्षस विवाह के मूल में पाया जाता है। राक्षस लोग अपने क्रूर एवं शक्तिशाली कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने गये हैं, अतः इस प्रकार के विवाह को यह संज्ञा मिली है। पिशाच लोग लुकछिपकर ही दुष्कर्म करते हैं, अतः उस कार्य के सदृश कार्य को पैशाच विवाह की संज्ञा दी गयी है। जब ऋषियों ने राक्षस एवं पैशाच को विवाह-प्रकारों में गिना तो इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि उन्होंने पकड़ी हुई या लुक-छिपकर भ्रष्ट की गयी कन्या के विवाह को वैधता दी है। उनके कथन से इतना ही प्रकट होता है कि वे दोनों अपहरण के दो प्रकार हैं, न कि वास्तविक विवाह के प्रकार। ऋषियों ने पैशाच की बहुत भर्त्सना की है। आपस्तम्ब एवं वसिष्ठ ने पैशांच एवं प्राजापत्य के नाम नहीं लिये हैं, इससे प्रकट होता है कि उनके काल में इन प्रकारों का अन्त हो चका था। पश्चात्कालीन लेखकों ने केवल नाम गिनाने के लिए सभी प्रकार के प्रचलित एवं अप्रचलित विवाहों के नाम दे दिये हैं। वसिष्ठ (१७१७३) के मत से अपहृत कन्या यदि मन्त्रों से अभिषिक्त होकर विवाहित न हो सकी हो, तो उसका पुनर्विवाह किया जा सकता है। स्मृतियों में कन्या के भविष्य एवं कल्याण के लिए अपहरणकर्ता एवं बलात्कार करने वाले को होम एवं सप्तपदी करने को कहा गया है, जिससे कन्या को विवाहित होने की वैधता प्राप्त हो जाय। यदि अपहरणकर्ता एवं बलात्कारकर्ता ऐसा करने पर तैयार न हों तो कन्या किसी दूसरे को दी जा सकती थी और अपहरणकर्ता तथा बलात्कारकर्ता को भीषण दण्ड भुगतना पड़ता था (मनु ८।३६६ एवं याज्ञवल्क्य २।२८७२८८)। मनु (८१३६६) के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपनी जाति की किसी कन्या से उसकी सम्मति से संभोग करे तो उसे पिता को (यदि पिता चाहे तो) शुल्क देना पड़ता था और मेघातिथि का कथन है कि यदि पिता धन नहीं चाहता तो प्रेमी को चाहिए कि वह राजा को धन-दण्ड दे; कन्या उसे दे दी जा सकती है, किन्तु यदि उसका (कन्या का) प्यार न रह गया हो तो वह दूसरे से विवाहित हो सकती है, किन्तु यदि प्रेमी स्वयं उसे ग्रहण करना स्वीकार न करे तो उसके साथ बलप्रयोग करके उससे स्वीकृत कराया जाय। ऐसा ही (कुछ अन्तरों के साथ) नारद (स्त्रीपुंस, श्लोक ७२) ने भी कहा है। नारद का कथन है कि यदि कन्या की सम्मति से संभोग किया गया है तो यह कोई अपराध नहीं है, किन्तु उसे (आभूषण एवं परिधान आदि से) अलंकृत एवं समादृत करके विवाह अवश्य करना चाहिए। __ स्मृतिचन्द्रिका तथा अन्य निबन्धों ने देवल एवं गृह्यपरिशिष्ट को उद्धृत करके यह लिखा है कि गान्धर्व, आसुर, एवं पैशाच में होम एवं सप्तपदी आवश्यक है। महाभारत (आदिपर्व १९५७) ने स्पष्ट कहा है कि स्वयंवर के पश्चात् भी धार्मिक कृत्य किया जाना चाहिए। कालिदास (रघुवंश ७) ने वर्णन किया है कि इन्दुमती के स्वयंवर के उपरान्त मधुपर्क, होम, अग्नि-प्रदक्षिणा, पाणिग्रहण आदि धार्मिक कृत्य किये गये। सर्वप्रथम आश्वलायन ने ही आठ प्रकारों का वर्णन किया है और पुनः होम एवं सप्तपदी की व्यवस्था कही है, अतः यह स्पष्ट है कि सभी विवाह-प्रकारों में होम एवं सप्तपदी के कृत्य आवश्यक माने जाते हैं। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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