SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास २८८ अतः बौधायन की सूची भी अति प्रामाणिक नहीं ठहरती । बालंभट्टी ने १८ मुख्य गोत्र ( बौधायन वाले ८+१० जिनमें कुछ कथाओं के राजाओं के नाम हैं) बताये हैं । बौधायन ने सहस्रों गोत्र बताये हैं और उनके प्रवराष्याय में ५०० गोत्रों एवं प्रवर ऋषियों के नाम हैं । प्रवरमंजरी के अनुसार तीन करोड़ गोत्र हैं, इसने लगभग ५००० गोत्र बताये हैं । अत: जैसा कि स्मृत्यर्थसार का कथन है, निबन्धों ने असंख्य गोत्रों की चर्चा की है और उन्हें ४९ प्रवरों में बाँट दिया है। मृगण एवं अंगिरागण का अति विस्तार है । भृगुओं के दो प्रकार हैं, जामदग्न्य एवं अजामदग्न्य । जामदग्न्य भृगुओं को पुनः दो भागों में बाँटा गया है, यथा-वत्स एवं बिद ( या विद) और अजामदग्न्य भृगुओं को पाँच भागों में बांटा गया है, यथा--आष्टिषेण, यास्क, मित्रयु, वैन्य एवं शुनक । इन पाँचों को केवल मृगु भी कहा जाता है। इन उपविभागों के अन्तर्गत बहुत-से गोत्र हैं, जिनकी संख्या एवं नामों के विषय में सूत्रकारों में मतैक्य नहीं है। जामदग्न्यवत्सों के प्रवर में पाँच (बौधायन) या तीन ( कात्यायन) ऋषि हैं, बिदों एवं आष्टिषेणों के प्रवर में पाँच ऋषि हैं। ये तीन ( वत्स बिद, आष्टिषेण) पञ्चावती (बौधायन) कहे जाते हैं और इनमें परस्पर विवाह नहीं हो सकता । पाँच अजामदग्न्य मृगुओं में बहुत से उपविभाग हैं, आपस्तम्ब ने उनकी छ: उपशाखाएं किन्तु कात्यायन ने १२ बतायी हैं । अंगिरागण के तीन विभाग हैं, यथा- गौतम, भरद्वाज एवं केवलांगिरस, जिनमें गौतमों में सात उपविभाग, भरद्वाजों में चार (रौक्षायण, गर्ग, कपिस् एवं केवल भरद्वाज) एवं केवलांगिरसों में छः उपविभाग हैं और इनमें प्रत्येक बहुत से भागों में बटा हुआ है। यह सब विभाजन बौधायन के अनुसार है। अत्रि (मूल आठ गोत्रों में एक) चार भागों में बंटा है (मुख्य अत्रि, वाद्भूतक, गविष्ठिर एवं मुद्गल ) । विश्वामित्र दस भागों में बँटा है जिनमें प्रत्येक ७२ उपशाखाओं में विभाजित है। कश्यप के उपविभाग हैं—- कश्यप, निध्रुव, रेम एवं शण्डिल । वसिष्ठ के भी चार उपविभाग हैं (एक प्रवर वाले वसिष्ठ, कुण्डिन, उपमन्यु एवं पराशर), जिनमें प्रत्येक के १०५ प्रकार हैं। अगस्त्य के तीन उपविभाग हैं (अगस्त्य, सोमवाह, यशवाह ), जिनमें प्रथम २० उपविभागों में बँटा है। जब यह कहा जाता है कि सगोत्र एवं सप्रवर विवाह वर्जित है, तो उपर्युक्त सभी पृथक् रूप से बाधा रूप में आ उपस्थित होते हैं । अतः एक लड़की जो सप्रवर नहीं है किन्तु सगोत्र होने के नाते, तथा सगोत्र नहीं है किन्तु सप्रवर होने के नाते, विवाह के योग्य नहीं मानी जा सकती। उदाहरणार्थ, यास्कों, वाघूलों, मौनों, मौकों के गोत्र विभिन्न हैं; किन्तु इनमें विवाह सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि इनका प्रवर है " भार्गव-वैतहव्य-सावेतस ।" इसी प्रकार संकृतियों, पूतिमासों, तण्डियों, शम्भुओं एवं शंगवों के गोत्र विभिन्न हैं किन्तु उनमें परस्पर विवाह नहीं हो सकता, क्योंकि उनका प्रवर समान है, यथा--- आगिरस, गौरीवीत, सांकृत्य ( आश्वलायन श्रौतसूत्र के मत से ) । यदि दो गोत्रों के प्रवरों में एक भी समान ऋषि हो गया तो दोनों गोत्र सप्रवर कहे जायेंगे। किन्तु इस प्रकार की सप्रबरता भृगु एवं अंगिरागण नहीं होती । raft अधिकांश गोत्रों के तीन प्रवर ऋषि हैं, किन्तु कुछ प्रवर एक ऋषि वाले, या दो ऋषि वाले, या पाँच ऋषि वाले होते हैं । मित्रयुओं में, आश्वलायन के मत से एक ऋषि प्रवर है, यथा--प्रवर वाध्यश्व, वसिष्ठों ( कुण्डिनों, पराशरों एवं उपमन्युओं को छोड़कर) में एक प्रवर ऋषि वासिष्ठ है, शुनकों में एक प्रवर ऋषि गृत्समद या शौनक या गार्त्समद है, अगस्तियों में एक प्रवर ऋषि अगस्त्य है । इसी प्रकार अन्य गोत्रों के प्रवर हैं। स्थान- संकोच के कारण हम विस्तार छोड़े जा रहे हैं। कुछ ऐसे कुल हैं जो द्विगोत्र कहे जाते हैं। इनके लिए आश्वलायन ने “द्विप्रवाचनाः" शब्द प्रयुक्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy