SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सगोत्र-विवाह और अभिभावकत्व २८९ वे मूलतः तीन हैं, यथा शौंग-शैशिरि, संकृति एवं लौगाक्षि। भरद्वाज गोत्र की उपशाखा शुग द्वारा विश्वामित्र की उपशाखा के शैशिरि की पत्नी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ (नियोग प्रथा द्वारा), वह पुत्र शौंग-शैशिरि कहलाया। अतः शौंगशैशिरि लोग भरद्वाज एवं विश्वामित्र गोत्रों में विवाह नहीं कर सकते। इनका प्रवर है आंगिरस-बार्हस्पत्य-भारद्वाजकात्यात्कील। एक प्रवर में चार ऋषि और पाँच से अधिक नहीं हो सकते। अन्य द्विगोत्रों के विषय में संस्कारकौस्तुम (पृ० ६८२-६८६), निर्णयसिन्धु (पृ० ३००) आदि देखे जा सकते हैं। दत्तक पुत्र के विषय में शौंग-शैशिरि की भाँति दोनों कुलों के गोत्र एवं प्रवर गिने जाते हैं और इस प्रकार दोनों कुलों में विवाह-सम्बन्ध वर्जित है। इस विषय में हम मनु (९।१४२) को भी पढ़ सकते हैं। राजाओं एवं क्षत्रियों के गोत्रों एवं प्रवरों के विषय में भी कुछ जान लेना परमावश्यक है। ऐतरेयब्राह्मण (३५॥ ५) के अनुसार क्षत्रियों के प्रवर उनके पुरोहितों के प्रवर होते हैं। इससे लगता है कि ऐतरेय के काल तक बहुत-से क्षत्रिय अपने गोत्रों एवं प्रवरों के नाम भूल गये थे। श्रौतसूत्रों ने लिखा है कि क्षत्रिय एवं राजा लोग अपने पुरोहितों का प्रवर काम में ला सकते हैं या उनका प्रवर है "मानव-ऐल-पौरूरवस।" मेघातिथि (मनु ३१५)ने लिखा है कि गोत्रों एवं प्रवरों की बातें मुख्यतः ब्राह्मणों से सम्बन्धित हैं, क्षत्रियों एवं वैश्यों से नहीं। यही बात मिताक्षरा में भी पायी जाती है, उनके तथा अन्य निबन्धकारों के अनुसार क्षत्रियों एवं वैश्यों के विवाह में उनके पुरोहितों के गोत्रों एवं प्रवरों की गणना होती है, क्योंकि उनके लिए विशिष्ट गोत्र एवं प्रवर है ही नहीं। यह सिद्धान्त अतिदेश' (आरोपण) का सूचक है क्योंकि हमें प्राचीन साहित्य एवं अभिलेखों से यह बात ज्ञात है कि राजाओं के गोत्र होते थे। महाभारत में आया है कि जब युधिष्ठिर ब्राह्मण के रूप में राजा विराट के यहाँ गये तो उनसे गोत्र पूछा गया और उन्होंने बताया कि वे वैयाघ्रपद्य गोत्र के हैं (विराटपर्व ७।८-१२) । यह गोत्र वास्तव में पाण्डवों का गोत्र था। पाण्डवों का प्रवर सांकृति था। कांची के पल्लवों का गोत्र था भारद्वाज। चालुक्यों का गोत्र मानव था। जयचन्द्र देव का गोत्र वत्स तथा प्रवर भार्गवच्यवन-अप्नवान-और्व-जामदग्न्य था। इसी प्रकार अनेक अभिलेख प्राप्त होते हैं जिनमें राजाओं के गोत्रों एवं प्रवरों के नाम प्राप्त होते हैं। कोई भी विद्वान् सूत्रों एवं निबन्धों में दिये गये गोत्रों एवं प्रवरों की सूची की अभिलेखों से प्राप्त सूची से तुलना कर सकता है और यह अध्ययन मनोहर एवं मनोरंजक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व रख सकता है। देखिए एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द १, पृ० ५, जिल्द ६, पृ० ३३७, जिल्द १६ पृ० २७.४, जिल्द १९, पृ० ११५-११७, २४८-२५०, जिल्द १४, पृ० २०२, जिल्द १३, पृ० २२८, जिन्द ८, पृ० ३१६-३१७, जिल्द ९, पृ० १०३, जिल्द १२, पृ० १६३-१६७, गुप्त इंस्क्रिप्शन्स, नं० ५५, एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द १०, पृ० १०, ल्यूडर की सूची नं० १५८। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के अनुसार वैश्यों का केवल एक प्रवर है 'वात्सप्र', किन्तु बौधायन के अनुसार तीन प्रवर हैं, यथा मालन्दन-वात्सप्र-मांक्तिल। वैश्य लोग अपने पुरोहितों के प्रवर भी प्रयोग में ला सकते हैं। संस्कारप्रकाश (पृ० ६५९) के मत से भालन्दन वैश्यों का गोत्र है। आपस्तम्ब के मत से यदि अपना गोत्र एवं प्रवर स्मरण न हो तो आचार्य (वेदगुरु) के गोत्र एवं प्रवर काम में लाये जा सकते हैं। किन्तु इस विषय में स्मरणीय यह है कि ऐसा व्यक्ति केवल अपने आचार्य की पुत्री से विवाह नहीं कर सकता, किन्तु आचार्य के गोत्र एवं प्रवर वाले अन्य व्यक्तियों की कन्याओं से विवाह कर सकता है। संस्कारकौस्तुभ एवं संस्कारप्रकाश (पृ. ६५०) के मत से यदि अपना गोत्र न ज्ञात हो तो अपने को काश्यप गोत्र कहा जा सकता है। किन्तु यह तभी किया जायगा जब कि गुरु (आचार्य) का गोत्र भी न ज्ञात हो। स्मृतिचन्द्रिका (श्राद्धप्रकरण, पृ० ४८१) का कथन है कि यदि नाना का गोत्र न ज्ञात हो तो पिण्डदान करते समय नाना को काश्यप-गोत्र का कहा जा सकता है। धर्म० ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy