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________________ गोत्र और प्रवर का वंशज है। बहुत प्राचीन काल से गोत्रों के ये पुरुष संस्थापक आठ रहे हैं। यह बात पाणिनि को भी ज्ञात थी। पतञ्जलि का कहना है, -- “ ८०,००० ऋषियों ने विवाह नहीं किया, अगस्त्य को लेकर आठ विवाहित ऋषियों से ही वंशपरम्परा बढ़ी। इन आठों के अपत्य गोत्र हैं, और इनके अतिरिक्त गोत्रावयव हैं।" किसी एक विशिष्ट पुरुष पूर्वज के वंशज एक गोत्र के अन्तर्गत आ जाते हैं । गोत्र भी ब्राह्मण जाति एवं वेद की भाँति अनादि हैं, ऐसा मेघातिथि का कहना है। एक प्रकार का लौकिक गोत्र भी होता है । यदि कोई व्यक्ति विद्या, धन, शक्ति, दया के फलस्वरूप यशस्वी हो सकता है, तो सम्भव है कि उसके वंशज अपने को उसी के नाम से घोषित करना चाहें। ऐसी स्थिति में इसे लौकिक गोत्र कहते हैं । प्रत्येक गोत्र के साथ १, २, ३ या ५ ( किन्तु ४ नहीं और न ५ से अधिक ) ऋषि होते हैं जो उस गोत्र के प्रवर कहलाते हैं । गोत्रों को दलों (गणों) में गठित किया गया है। आश्वलायन श्रौतसूत्र के अनुसार वसिष्ठ गण की चार उपशाखाएँ हैं, यथा--उपमन्यु, पराशर, कुण्डिन एवं वसिष्ठ; जिनमें प्रत्येक की बहुत-सी शाखाएँ हैं और प्रत्येक गोत्र कहलाती हैं । अतः व्यवस्था पहले गणों में, तब पक्षों में और तब पृथक्-पृथक् गोत्रों में होती है । भृगु एवं आंगिरस आज भी गण हैं । बौवायन के अनुसार प्रमुख आठ गोत्र कई पक्षों में विभाजित हुए। उपमन्यु का प्रवर है वसिष्ठ, भरद्वसु, इन्द्रप्रमद; पराशर गोत्र का प्रवर है वसिष्ठ, शाक्त्य, पाराशर्य; कुण्डिन गोत्र का प्रवर है वसिष्ठ, मैत्रावरुण, tatus एवं वसिष्ठों का प्रवर है केवल वसिष्ठ । अतः कुछ लोगों के मत से प्रवर का तात्पर्य है ऋषिगण जो एक गोत्र के संस्थापक को अन्य गोत्र - संस्थापकों से पृथक् करते हैं । यद्यपि 'प्रवर' शब्द ऋग्वेद में नहीं आता, किन्तु इसका समानार्थक शब्द 'आर्षेय' प्रयुक्त हुआ है, अतः प्रवरप्रणाली का आधार ऋग्वेदीय है, यह स्पष्ट हो जाता है। ऋग्वेद (९।९७।५१ ) में आया है - "उससे हम धन एवं जमदग्नि सरीखे आर्षेय प्राप्त करें।" कभी-कभी अग्नि का आवाहन बिना प्रवर या आर्षेय शब्द का प्रयोग किये किया जाता है। ऋग्वेद ( ८1१०२४ ) में आया है - "मैं अग्नि को और्व, भृगु, अप्नवान की भाँति बुलाता हूँ ।" आश्चर्य की बात तो यह है कि ये तीनों प्रवर ऋषियों की श्रेणी में रखे जाते हैं (बौधायन ३ ) । ऋग्वेद ( १/४५।३ ) में आया है - "हे जातवेदा (अग्नि), प्रस्कण्व पर भी ध्यान दो, जैसा कि प्रियमेध, अत्रि, विरूप एवं अंगिरा पर देते हो ।" इसी प्रकार ऋग्वेद (७।१८।२१) में पराशर, शतयातु एवं वसिष्ठ के नाम आये हैं । इस मन्त्र में जिस प्राशर का नाम आया है। वह पश्चात्कालीन कथाओं में शक्ति का पुत्र एवं वसिष्ठ का पौत्र कहा गया है। पराशर गोत्र का प्रवर है पराशर, शक्ति एवं वसिष्ठ (आश्वालयन एवं बौधायन के मत से ) । अथर्ववेद में ( ११।१।१६, ११।१।२५, २६, ३२, ३३, ३५, १२ .४।२ एवं १२, १६।८।१२-१३) आर्षेय का अर्थ है "ऋषियों के वंशज या वे जो ऋषियों से सम्बन्धित हैं ।" तैत्तिरीय संहिता में आर्षेय एवं प्रवरं सूत्रों में प्रयुक्त अर्थ में ही लिखित हैं ( २/५/८/७ ) । भृगु का प्रवर है " भार्गव - च्यवन अप्नवानर्व - जामदग्न्य । " कौषीतकि ( ३।२) एवं ऐतरेय ब्राह्मण ( ३४१७) में प्रवर के विषय में स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। आश्वलायनश्रौतसूत्र ( उत्तरषट्क ६ । १५/४-५ ) एवं बौधायन श्रौतसूत्र ( प्रवरप्रश्न ५४ ) के मत से क्षत्रियों एवं वैश्यों के प्रवर उनके पुरोहित के प्रवर होते हैं या "मानव - ऐल पौरूरवस" या केवल "मनुवत्" । शतपथब्राह्मण (१/(४/२/३-४) का कहना है कि यशस्वी पूर्वज, जिनका आवाहन किया जाता है, पिता एवं पुत्र की भाँति सम्बन्धित या कल्पित किये गये हैं, उनके पीछे कोई दैवी अनुक्रम नहीं पाया जाता । महाभारत के अनुसार मौलिक गोत्र केवल चार थे - अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ एवं मृगु (शान्तिपर्व २९७।१७-१८ ) । सम्भवतः यह कवि की कोरी कल्पना मात्र है । बौधायन ने मूल गोत्र आठ माने हैं किन्तु उनके मत से भृगु एवं अंगिरा (जिनके भाग एवं उपभाग बहुत हैं) आठ गोत्रों में नहीं आते। स्पष्ट है, बौधायन को भी वास्तविक आठ गोत्रों के नाम अज्ञात से थे । गौतम एवं भरद्वाज आठ में दो मौलिक गोत्र हैं, किन्तु वे एक साथ ही आंगिरस गण में रख दिये गये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only २८७ www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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